दर्शन – स्तुति (सकल-ज्ञेय) || Darshan Stuti
कविवर दौलतराम दोहा सकल-ज्ञेय-ज्ञायक तदपि निजानन्द-रस-लीन। सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन॥ पद्धरि जय वीतराग-विज्ञान पूर, जय मोह तिमिर को हरन सूर। जय ज्ञान अनन्तानन्त धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार॥ जय परम शान्त मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत। भवि भागन बच-जोगे वशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय॥ तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक, प्रगटै, विघटैं आपद अनेक। … Read more