सखी छन्द
शंभव जिन शिव सुख पाये, संभव सम्यक् भव भाये।
ग्रैवेयक से तुम आये, तीर्थंकर पितु हरषाये॥
मैं करूँ प्रभो आह्वानन, स्वीकारो मम उर आसन।
नहिं तुम बिन कोई सहारा, कर दो उद्धार हमारा॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरशंभवनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
श्रद्धा का कूप निराला, सद्ज्ञान नीर सुखकारा ।
चारित्र सुघट में लाऊँ, संभव जिन पूज रचाऊँ ॥
ओंह्रीँश्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव भव का ताप मिटाया, समता चन्दन अपनाया ।
हे जिन! तेरे गुण गाऊँ, चउगति के दुख नहिं पाऊँ ॥
ओंह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमने अक्षय सुख पाया, इस हेतु पूजने आया ।
मैं भी अक्षय सुख पाऊँ, इस हेतु सु अक्षत लाऊँ ॥
ओह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु काम सदन मन जीता, तब मदन जीत जग जीता।
जिन को मन सुमन चढ़ाऊँ, मन के वश नहिं हो पाऊँ ॥
अह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमने क्षुधा नशायी, तब वीतरागता पायी।
अष्टादश दोष मिटाये, इस हेतु सुचरु ले आये ॥
ओह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अज्ञान तिमिर निरवारा, कैवल्य सूर्य उजियारा।
मैं मोह महातम नायूँ, दीपक श्रुतज्ञान प्रकाशँ ॥
अह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अष्ट कर्म ने घेरा, पथ में घनघोर अँधेरा ।
सन्मार्ग दिखा दो नामी, विधि धूप जलाऊँ स्वामी ॥
ओह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मोक्ष महाफल पाते, सुख दुख के फल सब जाते ।
स्वाधीन आत्म सुख पाने, हम लाये सुफल चढ़ाने ॥
ओं ह्रीं श्री शंभवनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम अनर्घ पद पाये, इस हेतु अर्घ ले आये।
मुझको अनर्घ पद दीजे, यह भेंट हमारी लीजे ॥
ओं ह्रीं श्री शंभवनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ दोहा
शंभव जिन के गर्भ सह, जन्मादिक कल्याण ।
पूजक के भव रोग हर, औषधि बने महान ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
फाल्गुन शुक्ला अष्टमी, मृगशिर उडु का काल ।
मात सुषेणा गर्भ में, आये शंभव लाल ॥
ओं ह्रीं फाल्गुनशुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणमण्डितश्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ ।
कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा, मृगशिर उड्डु संयोग ।
दृढ़रथ नृप श्रावस्ति में जन्मे शंभव योग ॥
ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां जन्मकल्याणमण्डित श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
बादल नश्वर देखते सहस नृपति के साथ ।
जन्म दिवस पर तप धरा, जिनवर शंभवनाथ ॥
सिद्धार्था श्री पालकी, जिस पर हुये सवार ।
सहेतु वन तप धार प्रभु, निज करें विहार ॥
ओं ह्रीं मार्गशीर्षपूर्णिमायां तपः कल्याणमण्डित श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।
इन्द्रदत्त नृप गेह में लिया प्रथम आहार ।
पंचाश्चर्य प्रकट हुये, हुये मंगलाचार॥
चौदह वर्षों मौन रह, किया महातप घोर ।
कार्तिक कृष्णा चौथ को हुई ज्ञान की भोर ॥
ओं ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणमण्डितश्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अर्ध ।
चैत्री सित षष्ठी दिवस, कर अघाति का नाश ।
पंचम गति को प्राप्त जिन, देवें बोधि प्रकाश ॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लषष्ठ्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ ।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
मोक्ष अजित के बाद जब, बीते तीस सुलाख।
करोड़ सागर तब हुये, शंभव जिन श्रुत भाख ॥
चौपाई (समपदी)
चारुसेन मुनि मुख गणधर थे, इक सौ पंच सभी गणधर थे।
धर्मार्या प्रमुखा गणिनी थी, दो लख बीस सहस गिनती थी ॥
चउतिस अतिशय के धारी थे, प्रातिहार्य वसु प्रतिहारी थे ।
धर्म सभा में द्वादश कोठे, नर पशु देव उन्हीं में बैठे ॥
सभी सभासद प्रभु थुति करते, भक्ति करें पापों को हरते ।
दिव्यध्वनि सुन व्रत को धरते, शीघ्र भवोदधि पार उतरते ॥
दे उपदेश शिखरजी आये, घात अघाति कर्म शिव पाये ।
मेरे दोष निवारो स्वामी, आप समान बना दो नामी ॥
ओं ह्रीं श्रीशंभवनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।
अश्व पदाम्बुज शोभता, शंभव जिन पहचान।
सुखी निरोगी सब रहें, पाये अभय जहान॥
विद्यासागर सूरि का, स्वर्णिम संयम वर्ष।
शंभव जिन की अर्चना, मृदुमति करे सहर्ष॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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