क्षमासखी छन्द
अभिनन्दन जिनवर देवा, सुर नर मुनि करते सेवा ।
संवर नृप पिता सुहाये, गृह अवधपुरी में आये ॥
सिद्धार्था माँ कुलवन्ती, तुम जैसे सुत को जनती ।
प्रभु सोलह स्वप्न दिखाये, सत्रह में प्रवेश पाये ॥
हम पूजा करें तुम्हारी, गुण बगिया महके न्यारी ।
मम हृदयासन पे आओ, सद्बोध हृदय उपजाओ ॥
ॐ ह्रीं तीर्थंकर अभिनंदननाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
ज्ञानोदय छन्द
क्षीरोदधि सम प्रासुक जल ले, अभिनन्दन जिन पूज रहे ।
जन्म मरण मेटो प्रभु मेरा, जग में आप अदूज रहे ॥
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
अह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
देह ताप हर शुचि चन्दन से, अभिनन्दन जिन पूज रहे।
भव आताप हरो प्रभु मेरा, जग में चन्द्र अदूज रहे ॥
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
अह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
हिम शशि मुक्ता सम सित तन्दुल, तुम्हें पूजने को लाये ।
मिले आप जैसा अक्षय पद, हे अभिनन्दन हम आये ॥
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
ओंह्रींश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
सुभट काम मद मर्दन करने, मन का सुमन चढ़ाते हैं ।
मधुकर जिस पर गुंजन करते, वह सचित्त नहिं लाते हैं ।
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
ओह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
अनशन व्रत कर आप जिनेश्वर, क्षुधा विजेता बन पाये ।
चरु चरणों में अर्पण करते, मुझको तप अनशन भाये ॥
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
अह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भ्रमतम हरने हे अभिनन्दन, ज्ञान भानु हो इस जग में।
पूर्ण ज्ञान की मंजिल पाने, ज्ञान दीप हो शिव मग में
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
ओंह्रीँश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्यान अग्नि में कर्म काष्ठ की, तुमने धूम उड़ाई है।
आत्म सुगुण महके अभिनन्दन, सो यह धूप चढ़ाई है |
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
ओंह्रींश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीतिस्वाहा ।
आम्र संतरा आदि फलों की, गुणता सम प्रभु हितकारी ।
पक्व सरस फल अचित्त अर्पित, मिले मोक्ष मंगलकारी ॥
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
ओं ह्रीं श्री अभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्ट द्रव्य गुण पूर सुयश सम, लाये तुम्हें चढ़ाने को ।
अर्घ सहित हम नमोस्तु करते, अनर्घ शिव पद पाने को।
सोलहकारण भावन भाके, तीर्थंकर का पद पाते।
ऐसे अभिनन्दन जिन के पद, इन्द्रों से पूजे जाते॥
ओं ह्रीं श्री अभिनंदननाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ
सखी छन्द
वैशाख शुक्ल छठ प्यारी, सुर रत्न वृष्टि मनहारी ।
अभिनन्दन गर्भ सुहाये, सिद्धार्थ मातु हरषाये॥
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लषष्ठ्यां गर्भकल्याणमण्डितश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घं ।
तिथि माघ शुक्ल द्वादशि को, जन्मे प्रभु इन्द्रिय वशि को ।
त्रिभुवन में आनन्द छाया, नरकों में सुख क्षण गाया ॥
ओं ह्रीं माघशुक्लद्वादश्यां जन्मकल्याणमण्डितश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्ध ।
मेघों की शोभा नशती, भव विरक्ति प्रभु में लसती।
तिथि माघ शुक्ल द्वादशि को, तप धारा शिववधु वशि को ॥
ओं ह्रीं माघशुक्लद्वादश्यां तपः कल्याणमण्डितश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्ध ।
सित पौषी चौदस आती, चउ घाति नाश गुण लाती।
प्रभु समवसरण में राजे, उपदेश सुनें गणराजे।।
ओं ह्रीं पौषशुक्लचतुर्दश्यां ज्ञानकल्याणमण्डितश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घं।
सम्मेद शिखर को जाते, अन्तिम शुचि ध्यान लगाते।
वैशाख शुक्ल छठ आयी, प्रभु ने शिवरमणी पायी ॥
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लषष्ठ्यां मोक्षकल्याणमण्डितश्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
जयमाला (यशोगान )
(दोहा)
शंभव जिन शिव बाद जब, दश लख करोड़ वर्ष ।
तब अभिनन्दन जन्मते, आयु इसी में हर्ष ॥
समवसरण में शोभते, अभिनन्दन जिन नाथ ।
सर्व सभायें हो गयीं, प्रभु को पाये सनाथ ॥
ज्ञानोदय छन्द
साढ़े दश योजन सम भू पे, निर्मित प्रभु की धर्म सभा ।
इन्द्रनील मणि रत्नों का था, विशाल प्रांगण गोल शुभा ॥
भूतल से पन सहस्त्र धनुषी, ऊपर जाने थीं सीढ़ी।
हस्तमान में बीस सहस थीं, चारों दिश में सम सीढ़ी ॥
धूलिसाल परकोट रत्न का, चउदिश तोरणद्वार बने ।
मानस्तम्भ फिर चार दिशा में, तीन पीठ युत चार गिने ॥
मानथंभ के निकट वापिका, जहाँ भव्य गण न्हवन करें ।
श्रद्धा से फिर प्रवेश करके, जिनेन्द्र प्रभु का दर्श करें ॥
भूमि चैत्य प्रासाद प्रथम है, बाद रजतमय वेदी है।
कोट सदृश गोपुर द्वारों से, चार दिशायें शोभीं हैं ॥
जल से भरी खातिका जिसमें, हंसा तोता आदि रमें।
पुनः रजतमय द्वितीय वेदी, गोपुर द्वारों युक्त जमें ॥
लता भूमि फिर वकुल माधवी, आदि लताओं से शोभे ।
स्वर्ण कोट फिर धूलिसाल सम, गोपुरादि युत मन लोभे ॥
उपवन भू पे चार दिशा में, अशोकादि उद्यान रहे ।
हर दिशा में इक चैत्य वृक्ष है, जहाँ जैन प्रतिमान रहें ॥
फिर वेदी फिर ध्वज भू में ध्वज, हंस आदि दश चिन्हों में ।।
ध्वजा दण्ड सब स्वर्णमयी हो, पुनः स्वर्णमय कोट जमें ॥
चार दिशा में चउ नटशाला, द्वारों पर नागेन्द्र खड़े ।
कल्पभूमि फिर दश सुरतरु मय, लता वापि से घिरे खड़े ॥
मेरु आदि सिद्धार्थ चारु तरु, जिन पर द्वय विध बिम्ब रहे।
स्वर्णमयी वेदी के चउदिश, भवनवासि सुर द्वार खड़े ॥
भवनभूमि के चउदिश वीथी, जिसके दोनों पावों में ।
आठ जगह नव-नव स्तूप हैं, पद्मराग मणि रत्नों में ॥
सभी बहत्तर संस्तूपों में, अर्हत् सिद्ध बिम्ब भाये।
तोरण द्वार सहित वन्दन स्त्रक्, ध्वजा छत्र मंगल गाये ॥
पुनः कोट फिर रत्न थंभ पर, श्री मंडप भू राजित है।
चार मार्ग सोलह दीवारें, बारह कोठे भाजित हैं ॥
जिनके दांय हस्त से गणधर, कल्पवासिनी सुरिकायें।
तृतीय में आर्या सुश्राविका, फिर त्रय में सुर वनितायें ॥
आगे व्यन्तर ज्योतिष भावन, कल्पवासि सुर क्रमशः हैं।
चक्रवर्ति नर हैं ग्यारह में, बारहवें सिंह आदिक हैं ॥
आगे पंचम वेदि स्फटिक की, फिर क्रमशः त्रय पीठ रहे ।
द्वादश कोठों के चउदिश की, चार वीथि के सुमुख रहें ॥
सोल सोल सीढ़ी चउदिश में, चढ़कर पहला पीठ मिले।
धर्मचक्र चउदिश सुयक्ष ले, द्वादश गण परिक्रमा करें ॥
द्वितीय पीठ पर रहीं ध्वजायें, सिंह आदिक चिन्हों वाली ।
धूप दान निधि मंगल द्रव्यें, फिर वसु सीढ़ी प्रभु वाली ॥
तृतीय पीठ पर गन्ध कुटी है, जिस पर सिंहासन प्यारा ।
जिसके चउ अंगुल के ऊपर, जिनवर रूप लसे न्यारा ॥
अभिनन्दन जिन समवसरण में, शोभ रहे अतिशय धारी ।
इनके पद कमलों में मेरी, मति मृदु नमती गुणधारी ॥
अह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।
वानर जिनपद में लसे, अभिनन्दन पहचान ।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान ॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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