ज्ञानोदय छंद
शान्तिनाथ सोलम तीर्थंकर, पंचम चक्री पद त्यागी।
कामदेव द्वादशवें प्रभु की पूजा करते बड़भागी॥
हस्तिनापुर ऐरा माता, विश्वसेन नृप तात रहे।
पाँचों कल्याणक से मण्डित, शान्तिनाथ जिन आप रहे॥
पुष्पदन्त से धर्मनाथ के, बीच तीर्थ विच्छेद रहा।
किन्तु शान्ति जिन तीर्थंकर से, अब तक तीर्थ अखेद लहा॥
ऐसे शान्ति प्रदाता जिनवर, भक्तों के उर में आओ।
आधि व्याधि दुख उपाधि हरने, हे जिनसूर्य ! समा जाओ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् !
राग द्वेष वश मोह कर्म वश, जन्म जरा मृति दुख पाये।
इन्हीं तीन के विनाश करने, जिन पूजन में जल लाये॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा।
अनिष्ट संयोगों में समता, हे जिनवर ! मुझमें आये।
तन मन का संताप मिटाने, सुरभित चंदन ले आये॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्व. स्वाहा ।
मान मिले तो हर्ष न मानूँ, नहीं मिले तो अच्छा है।
अक्षय सुख पाने जिनपद में लाये अक्षत स्वच्छा हैं॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व. स्वाहा।
कामदेव पद धारी तुमसे, कामदेव भी हार गया।
तभी आपके चरण कमल में, रखने पुष्प सम्हार लिया॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्व. स्वाहा।
अनशन तप कर आप शान्तिजिन, क्षुधा विजेता बन पाये।
क्षुधा जीतने भगवन् तेरे, पद में चरुवर ले आये॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्व. स्वाहा।
शान्ति जिनेश्वर प्रभो! आपने, पूर्ण ज्ञान को प्रकटाया।
मुझमें भी सद्द्बोध जगादो, दीपक पूजन को लाया॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीतीर्थंकर श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्व. स्वाहा।
ध्यान अग्नि में कर्म कालिमा, जला आप छविमान बने।
शुद्ध धूप अर्पित जिन पद में, मम आतम गुणवान बने॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्व. स्वाहा।
सर्व कर्म के क्षय से भगवन्, महामोक्ष फल तुम्हें मिला।
उत्तम फल हम अर्पित करते, पाने शाश्वत मोक्ष किला॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व, स्वाहा।
रत्नत्रय का मूल्य चुका कर पद अनर्घ तुमने पाया।
आप सरीखा शिव पद पाने, अर्घ हाथ में ले आया॥
शान्तिनाथ के पद पंकज की, पूजा जग मंगलकारी।
चिन्ता रोग अमंगल हरती, मिले शान्ति अतिशयकारी॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्ध निर्व. स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ – जिनगीतिका छंद
छह मास प्रभु के गर्भ पहले, जन्म तक प्रतिदिन यहाँ।
सुर अर्ध सह दश कोटि रत्नों की करें वर्षा महाँ॥
माँ स्वज सोलह देखती, छप्पन कुमारी सेवतीं।
हरि गर्भ कल्याणक मनाता, भक्त दुनिया देखती॥
ओं ह्रीं भाद्रकृष्णसप्तम्यां गर्भकल्याणमण्डितश्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्थ।
जब जन्म हो तब देवगृह में, बाजें घंटादिक महाँ ।
सुर मुकुट झुकते पीठ कँपते, चिन्ह जिन जन्में कहाँ?
सुर शैल पर अभिषेक करने, इन्द्र बालक को गहे।
हरि जन्म कल्याणक मनाता, सर्व हर्ष हृदय लहें ॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्थ।
भव भोग तन से विरत प्रभुवर, भावनायें चिन्तते।
लौकान्त सुर का संस्तवन सुन, सिद्ध प्रभु को वन्दते॥
जिन पालकी को तपोवन तक, मनुज सुर क्रमशः धरें।
हरि निष्क्रमण कल्याण पूजें, आप सम हम तप करें॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां तपः कल्याणमण्डित श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्थ।
शुचि ध्यान अग्नि प्रदीप्त करके, घातिया चारों दहें।
कैवल्य-लक्ष्मीकान्त द्वादश सभा मध्य विलस रहें॥
भवि तीन संध्या में सुधा सम, दिव्य ध्वनि को पी रहे।
हरि ज्ञान कल्याणक मनाते, भक्ति रस में जी रहे॥
ओं ह्रीं पौषशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्थ।
तीर्थेश चारों शेष विधि हन, मोक्ष को क्षण में गये।
आत्मोत्थ परमानंद पाकर, आत्म में ही रम गये॥
अग्नीन्द्र नख कच दहन करके, इन्द्र सह जिन को भजैं।
भव सिन्धु से हम पार होने, मोक्ष कल्याणक जजैं॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
पूर्णार्घ (जिनगीतिका)
गृह हस्तिनापुर मात ऐरा, विश्वसेन पिता महाँ।
अलि भाद्र सातें गर्भ मंगल, चिन्ह मृग पद में जहाँ॥
कलि ज्येष्ठ चउदस जन्म तप सित, पौष दशमी ज्ञान की।
सम्मेदगिरि कलिज्येष्ठ चउदस, शान्तिजिन निर्वाण की
चक्रेश वैभव त्याग कर, रतिनाथ ने रति त्याग दी।
तीर्थेश जिन ने भव्य जन को, मोक्ष दृष्टि विराग दी॥
जिनभक्ति का ल कर्म क्षय हो, दुःख क्षय हो बोधि हो।
जिनदेव सी गुण सम्पदा हो, प्राप्त सुगति समाधि हो॥
ओं ह्रीं पञ्चकल्याणकप्राप्त श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाीर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (यशोगान)
ज्ञानोदय छंद
शान्तिनाथ चक्री पद धारी, कामदेव पद के धारी।
तीर्थंकर छयालिस गुणधर की, करें वंदना नर नारी॥
नव निधि रत्न चतुर्दश स्वामी, उनन्चास वैभव नामी।
दशविध भोग सहित चक्री थे, कामदेव अन्तर्यामी ॥1॥
वैभव भोग रत्न निधियों को, त्याग बने जग हितकारी।
कामदेव वैरागी जिनवर, शान्तिनाथ मंगलकारी॥
धर्मनाथ के बाद उदधि त्रय, पौन पल्य जब बीत गया।
लाख वर्ष आयुष में तब तक, अर्ध काल भी रीत गया ॥2॥
हथिनापुर के विश्वसेन गृह, ऐरा माँ के उदर बसे।
गर्भ भाद्र अलि सातें चौदस, ज्येष्ठ कृष्ण में जन्म लसे॥
एक दिवस दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्बों को देखा।
लौकान्तिक वैराग्य जानकर, अनुमोदन का पथ लेखा ॥3॥
जन्म दिवस पर चक्रायुध सह, आप गही जिनवर दीक्षा।
भक्ति भाव से सुमित्र नृप ने, पड़गाहा तब ली भिक्षा॥
पौष शुक्ल दशमी को तुमने, केवलज्ञान दर्श पाया।
ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को, गिरि सम्मेद मोक्ष पाया ॥4॥
पात्र दान के फल से निधियाँ, रत्नत्रय से रत्न मिलें।
जिन पूजा से सुपद प्रतिष्ठा, तप तरुवर पर मोक्ष फले॥
धर्म रत्न से संयम निधि से, तप धन से शिव सौख्य मिले।
बोधि लाभ हो सुगति गमन हो, समाधि परमानन्द फले ॥5॥
अन्तराय के क्षय से है जिन!, तुमने आत्मिक सुख पाया।
क्षणभंगुर सुख भोग त्यागने, मुझे आपका तप भाया॥
शान्तिनाथ जिनदेव! आपने, अक्षय वैभव सुख पाया।
कभी नहीं जो समाप्त होगा, वही भक्त पाने आया ॥6॥
पूर्वभवों में आर्य देव बन, विद्याधर फिर देव बने।
मनुज तिलक बलभद्र देव फिर, चक्रायुध चक्रेश बने॥
फिर अहमिन्द्र मेघरथ दीक्षा, सर्वार्थी अहमिन्द्र बने।
शान्तिनाथ जिन बने विदेही, जिनके मृदु पद इन्द्र नमें ॥7॥
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्व. स्वाहा।
हिरण चिन्ह पद में लसे, शान्तिनाथ भगवान।
जिनपूजा जिनभक्त का, कर देती कल्याण॥
शान्तिनाथ आराधना, करे सुने जो कोय।
विद्यासागर गुरु कहें, मृदुमति वह दुख खोय॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
*****
Note
Jinvani.in मे दिए गए सभी स्तोत्र, पुजाये, आरती और श्री शान्तिनाथ जिन पूजा जिनवाणी संग्रह संस्करण 2022 के द्वारा लिखी गई है, यदि आप किसी प्रकार की त्रुटि या सुझाव देना चाहते है तो हमे Comment कर बता सकते है या फिर Swarn1508@gmail.com पर eMail के जरिए भी बता सकते है।

Swarn Jain
My name is Swarn Jain, A blog scientist by the mind and a passionate blogger by heart ❤️, who integrates my faith into my work. As a follower of Jainism, I see my work as an opportunity to serve others and spread the message of Jainism.