कवि श्री मनरंगलाल
(छप्पय छन्द)
प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर |
तीसर मुनि श्रीनिचय सर्वसुन्दर चौथो वर ||
पंचम श्रीजयवान विनयलालस षष्ठम भनि |
सप्तम जयमित्राख्य सर्व चारित्र-धाम गनि ||
ये सातों चारण-ऋद्धि-धर, करूँ तास पद थापना |
मैं पूजूँ मन-वचन-काय कर, जो सुख चाहूँ आपना ||
ॐ ह्रीं श्री चारणऋद्धिधर-श्रीसप्तऋषीश्वरा:! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री चारणऋद्धिधर – श्रीसप्तऋषीश्वरा:! अत्र तिष्ट तिष्ट ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री चारणऋद्धिधर- श्रीसप्तऋषीश्वरा:! अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट्! (सत्रिधिकरणम्)
(गीता छन्द)
शुभ-तीर्थ-उद्भव-जल अनूपम, मिष्ट शीतल लायके |
भव-तृषा-कंद-निकंद-कारण, शुद्ध-घट भरवायके ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री चारण-ऋद्धिधर-श्रीमन्व-स्वरमन्व-निचय-सर्वसुन्दर जयवान- विनयलालस-जयमित्रऋषिभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
श्रीखंड कदलीनंद केशर, मंद-मंद घिसायके |
तस गंध प्रसरित दिग्-दिगंतर, भर कटोरी लायके ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
अतिधवल अक्षत खंड-वर्जित, मिष्ट राजन भोग के |
कलधौत-थारी भरत सुन्दर, चुनित शुभ-उपयोग के ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
बहु-वर्ण सुवरण-सुमन आछे, अमल कमल गुलाब के |
केतकी चंपा चारु मरुआ, चुने निज-कर चाव के ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
पकवान नानाभाँति चातुर, रचित शुद्ध नये नये |
सद मिष्ट लाडू आदि भर बहु, पुरट के थारा लये ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
कलधौत-दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृत-सार सों |
अति-ज्वलित जगमग-ज्योति जाकी, तिमिर-नाशनहार सों ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: मोहांध्कार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
दिक्-चक्र गंधित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही |
सो लाय मन-वच-काय शुद्ध, लगाय कर खेऊँ सही ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट पुष्ट चुनायके |
द्रावड़ी दाड़िम चारु पुंगी, थाल भर-भर लायके ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना |
फल ललित आठों द्रव्य-मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
जयमाला
वंदूँ ऋषिराजा, धर्म-जहाजा, निज-पर-काजा करत भले|
करुणा के धारी, गगन-विहारी, दु:ख-अपहारी भरम दले||
काटत जम-फंदा, भवि-जन-वृंदा, करत अनंदा चरणन में|
जो पूजें ध्यावें, मंगल गावें, फेर न आवें भव-वन में ||
(छन्द पद्धरि)
जय ‘श्रीमनु’ मुनिराजा महंत, त्रस-थावर की रक्षा करंत |
जय मिथ्या-तम-नाशक पतंग, करुणा-रस-पूरित अंग-अंग ||
जय ‘श्रीस्वरमनु’ अकलंक रूप, पद-सेव करत नित अमर भूप |
जय पंच-अक्ष जीते महान्, तप तपत देह कंचन-समान ||
जय ‘निचय’ सप्त तत्त्वार्थ भास, तप-रमातनों तन में प्रकाश |
जय विषय-रोध संबोध भान, परपरिणति नाशन अचल ध्यान ||
जय जयहि ‘सर्वसुन्दर’ दयाल, लखि इंद्रजालवत् जगत्-जाल |
जय तृष्णाहारी रमण राम, निज परिणति में पायो विराम ||
जय आनंदघन कल्याणरूप, कल्याण करत सबको अनूप |
जय मद-नाशन ‘जयवान’ देव, निरमद विचरत सब करत सेव ||
जय जयहिं ‘विनयलालस’ अमान, सब शत्रु-मित्र जानत समान |
जय कृशित काय तप के प्रभाव, छवि-छटा उड़ति आनंद-दाय ||
‘जयमित्र’ सकल जग के सुमित्र, अनगिनत-अधम कीने पवित्र |
जय ‘चंद्र-वदन’ राजीव-नैन, कबहूँ विकथा बोलत न बैन ||
जय सातों मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग |
जय आये मथुरापुर मँझार, तहँ मरी-रोग को अतिप्रसार ||
जय-जय तिन चरणनि के प्रसाद, सब मरी देवकृत भर्इ वाद |
जय लोक करे निर्भय समस्त, हम नमत सदा नित जोड़ हस्त ||
जय ग्रीषम-ऋतु पर्वत मँझार, नित करत अतापन योगसार |
जय तृष-परीषह करत जेर, कहुं रंच चलत नहि मन-सुमेर ||
जय मूल अठाइस गुणन धार, तप उग्र तपत आनंदकार |
जय वर्षा-ऋतु में वृक्ष-तीर, तहँ अतिशीतल झेलत समीर ||
जय शीत-काल चौपट मँझार, कै नदी-सरोवर-तट विचार |
जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचक नहिं मटकत रोम कोय ||
जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदूहन इत्यादिक गनीय |
जय आसन नानाभाँति धार, उपसर्ग सहत ममता-निवार ||
जय जपत तिहारो नाम जोय, लख पुत्र-पौत्र कुलवृद्धि होय |
जय भरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्र-तनो दु:ख होय छार ||
जय चोर अग्नि डाकिन पिशाच, अरु ईति भीति सब-नसत साँच |
जय तुम सुमरत सुख लहत लोक,सुर-असुर नमत पद देत धोक ||
(रोला छन्द)
ये सातों मुनिराज, महातप लक्ष्मीधारी |
परमपूज्य पद धरे, सकल जग के हितकारी ||
जो मन-वच-तन शुद्ध, होय सेवें औ ध्यावें|
सो जन ‘मनरंगलाल’, अष्ट-ऋद्धिन को पावें ||
(दोहा)
नमन करत चरनन परत, अहो गरीब-निवाज|
पंच-परावर्तननि तें, निरवारो ऋषिराज ||
ॐ ह्रीं श्री मन्वादिसप्तर्षिभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
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Note
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