Samuchchay Puja

दोहा
शुद्ध  सुगुण  छ्यालीस युत, समोशरण  के  ईश ।
निज आतम उद्धार हित, नमत चरण में शीश ॥१॥

आत्म-शुद्धि के अर्थ हम, जिनवर पूज रचाय ।
रत्नत्रय की प्राप्ति हित, श्री जिनेन्द्र गुण गाय ॥२॥

करूँ त्रिविधि शुधियोग से, आह्वानन विधि सार ।
आवहु तिष्ठहु हृदय में, नाथ त्रिलोक अधार ||३||

सोरठा
व्रत चरित्र महान, इस बिन मुक्ति न पावहीं।
चारित्र शुद्धि विधान, इसीलिए अर्चन करूँ ।
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहितार्हत्परमेष्ठिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहितार्हत्परमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ ठः ठः ठः । ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहितार्हत्-परमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।

(अष्टक)
गंगादिक निर्मल नीर, कंचन कलश भरूँ ।
प्रभु वेग हरो भव पीर, चरणन धार करूँ |
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी ।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा ।

मलयागिरि चन्दन सार, केशर रंग भरी ।
प्रभु ! भव आतप निवार, यह विनती हमरी ॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी ।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

ले चन्द्र-किरण सम शुद्ध, अक्षत शुचि सारे ।
तसु पुंज धरूँ अवरुद्ध, तुम पग तल धारे ॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी ।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।

सुरतरु के सुमन समेत, अलि गुंजार करें ।
मैं जूं चरण निज हेतु, मद गद व्याधि हरें ॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी ।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।

नानाविधि के पकवान, कंचन थाल भरूं ।
मैं जजूं चरण ढिग आन, भूख व्यथा जु हरूं।
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी ।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तम खण्डन दीप अनूप, तुम पद निकट धरूं।
मम मोह हरो शिव भूप, याते पूज करूं॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने दीपम् निर्वपामीति स्वाहा॥

दसविधि की धूप बनाय, पावक में खेऊं।
मम दुष्ट करम जल जाय, तुम पद नित खेऊं॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।

बादाम सुपारी लाय, केला फल प्यारे ।
तुम शिव फल देहु दयाल तुम पद फल धारे॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने फलम् निर्वपामीति स्वाहा॥

जल फल वसु कंचन थाल आठों द्रव्य धरूं ।
‘छोटे’ नित नावत भाल तुम पद अर्घ धरूं ॥
बारह सौ चौँतिस सार, प्रोषध सुखकारी ।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।

चाल योगीरासा
मंगल अर्ध बनाय गाय गुण, कंचन थाली भरिये।
अर्घ देत जिनराज चरण में, महा हर्ष उर धरिये॥
चारित शुद्धि व्रत के हित मैं, जिन पद पूज रचाऊं।
आतम हित के हेतु जिनेश्वर, पद में शीश नवाऊं ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध- चारित्रव्रतमण्डिताय श्री अर्हत्परमेष्ठिने महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।

जयमाला
दोहा

जिसकी शुद्धि के बिना, जिनवर सीझे नाहि ।
उसकी शुद्धि के लिए, जिनवर पूज रचाहि ||१||
व्रत चारित को शुद्ध कर, पहुँचे अविचल थान ।
उनही के पद कमल का, धरूँ हृदय में ध्यान ॥२॥

पद्धरि छन्द
जय जय जय जिनवर देव भूप, जय जय जय शिववल्लभ अनूप ।
जय जगत पति जय जगन्नाथ, जय मंगलमय हम नमत माथ ॥३॥

जय शिवशंकर जय विष्णु देव, जय ब्रह्मा जय मंगल विशेष।
जय कमलासन कृत कर्म ईश, इन्द्रादि चरण नित नमत शीश ||४||

अष्टादश दोष विमुक्त धीर, जय मंगल भव-भव हरत पीर।
जय अन्तरिक्ष राजत जिनेश, जय चतुर्गती काटत कलेश ||५||

जय इन्द्रियजय, जय धर्मवीर, जय कर्म दलन भट अति गंभीर।
जय जगत-शिरोमणि गुण-निधान, जय शत्रु मित्र जानत समान ||६||

जय व्रत चारित धारी करण्ड, जय शुद्ध विहारी आत्म पिण्ड।
जय सत् चित् घन आनन्द रूप, जय शुद्ध चिदानन्द सत् स्वरूप ॥७॥

जय पंच महाव्रत धरन धीर, जय पंच समिति पालक सुवीर।
जय तीन गुप्ति के रथ सवार, यह तेरह विधि चारित्र धार ॥८॥

जय चरित शुद्ध धर व्रत दयाल, इक क्षण में तोडे कर्म जाल।
ऐसे विशुद्ध वर व्रत प्रधान ऐसे व्रत को पूजत सुजान ॥ ९॥

यह व्रत सब जग में है प्रसिद्ध, औ नित्य अनादि स्वयं सिद्ध।
इसके बिन मुक्ति नहीं होय यह व्रत है तारण सिन्धु तोय ॥१०॥

हे व्रताधीश हे व्रत दिनेश, हे शिववल्लभ काटो कलेश।
अब तेरा शरण गहा सुआन, ‘छोटे’ चाहत निज आत्मज्ञान ॥११॥

सोरठा
व्रत चारित्र प्रमाण चारित्र चालें वीर वर।
ते पावें निर्वाण आगे कर्म नशाय के॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित-षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय चतुस्त्रिंशदधिकद्वादशशतशुद्ध चारित्रव्रतमण्डिताय श्री अहंत्परमेष्ठिने पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।

दोहा

जो विशुद्ध मन से सदा, चारित पाले वीर।
ते वसुकर्म नशाय के, पहुंचे भव के तीर॥
इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्

नोट- यह व्रत भाद्रपद की सुदी पडवा से आरम्भ किये जाते हैं। यह व्रत श्रावक-श्राविका अपनी शक्ति के अनुसार कर सकते हैं। उत्तम विधि तो उपवास करना है, मध्यम विधि में एक बार पानी ले सकते हैं तथा जघन्य में एक या दो रसों से एक बार भोजन (शुद्ध मर्यादित) ले सकते हैं। जो श्रावक-श्राविका बडी जाप नहीं कर सकते वे छोटी जाप भी कर सकते हैं।

मंत्र :- ॐ ह्रीं असिआउसा चारित्रशुद्धिव्रतेभ्यो नमः॥

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Note

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