भारत छन्द
हे जिन वीर महति अतिवीर, महावीर सन्मति देव हमारे
हे अन्तिम जिनशासन नायक, तीर्थ तुम्हारा भव से तारे।
त्रिशला नन्दन तुम को वन्दन, हे सिद्धारथ राज दुलारे
मेरे उर के सिंहासन पर, शीघ्र पधारो भक्त निहारे॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरणम् !
विद्याब्धिछन्द- लय- हे दीनबन्धु …….।
शुचि कूप नीर छान जीव कूप में किये,
जन्मादि रोग नाशने अचित्त जल लिये।
पृथिवी जलाग्नि वायु वृक्ष दुःख नाश दो,
हे वीरनाथ भगवन्! अर्जी पे ध्यान दो ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्व. स्वाहा।
चारों गति में सर्व जीव दुख उठा रहे,
दुख दूर हों सभी के चन्दन चढ़ा रहे।
कृमि शंख सीप गण्डवाल दुःख नाश दो,
हे वीरनाथ भगवन्! अर्जी पे ध्यान दो ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्व. स्वाहा।
सब जीव सौख्य खोजते कहीं न सुख मिला,
अक्षय सुखों की प्राप्ति को अक्षत लिये भला।
मत्कुण पिपीलिकादि कुन्थु दुःख नाश दो,
हे वीरनाथ भगवन्! अर्जी पे ध्यान दो ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व. स्वाहा।
कामों के बाण झेलते आये अनादि से,
व्रत ब्रह्मचर्य ले बचूँ तन मन की व्याधि से।
मक्खी भ्रमर पतंग बर्र दुःख नाश दो,
हे वीरनाथ भगवन्! अर्जी पे ध्यान दो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्व. स्वाहा।
आहार पान ढूँढ़ते दिन रात बीतती,
पीड़ायें भूख प्यास डाँस उष्ण शीत की।
गो गज वृषभ अजाश्व सुअर दुःख को हरो,
हे वीरनाथ भगवन्! सबको सुखी करो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्व. स्वाहा।
अज्ञान के तिमिर में नहीं हित अहित गिना
हित ज्ञान प्राप्ति को चढाऊँ दीप हे जिना।
मुर्गादि मृग मयूर मत्स्य आदि दुख हरो,
हे वीरनाथ भगवन्! सबको सुखी करो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर महावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्व. स्वाहा।
अग्नि में धूप को जलाया कर्म ना जले,
कर्मों को जलाने ये धूप लाये हैं भले ।
नरकादि दुःख हेतु पाप सर्व मम हरो,
हे वीरनाथ भगवन्! सबको सुखी करो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्व. स्वाहा।
पापों के पुण्य के फलों को भोगते रहे
रागादि से विधि बंधकर के दुःख को लहे।
असुरादि देव दुर्गती के मनस दुख हरो,
हे वीरनाथ भगवन्! सबको सुखी करो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व. स्वाहा।
आठों करम को नाशने आठों दरव लिये,
दुःखों से मुक्ति पायें सभी अर्घ चित दिये।
जीवों के मन वचन तनों के सर्व दुख हरो,
हे वीरनाथ भगवन्! सबको सुखी करो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्व. स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ
दोहा
षाढ़ शुक्ल छठ से रहा, अन्तिम गर्भ प्रवास।
वसु दिन सह नव मास तक, सन्मति गर्भावास॥
ओं ह्रीं आषाढ़ शुक्लषष्ठ्यां गर्भकल्याणकप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नमः अर्धं।
त्रयोदशी सुदि चैत्र को, जन्म महोत्सव मान।
दीक्षा तिथि के पूर्व तक, कुण्ड ग्राम में जान॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्मकल्याणकप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घं।
मृगशिर दशमी असित से, बारह वर्ष प्रमाण।
पाँच माह पन्द्रह दिवस, दीक्षा काल सुजान॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष कृष्णदशम्यां तपः कल्याणकप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नमः अर्घं।
दशमी सुदि वैशाख से, काल केवली जान।
बीस दिवस पन माह सह, उनतिस वर्ष प्रमान॥
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नमः अर्धं।
वर्ष इकत्तर मास त्रय, पच्चिस दिन सब काल।
मोक्ष हुआ श्री वीर को, कार्तिक अमा निहाल॥
पावापुर का पद्म सर, सिद्धक्षेत्र भूमीश।
सर्व दुखों से छूटने, निशदिन भजो मुनीश॥
ओं ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यायां मोक्षकल्याणकप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्धं।
जयमाला (यशोगान)
विद्यार्चना छन्द
लय- हे गुरुवर! तेरे गुण गाने..
हे वीरनाथ! अतिवीर महति जिन!, महावीर कहलाये हो।
सन्मति दाता सन्मति स्वामी, श्री वर्द्धमान मन भाये हो॥
तुमने असंख्य भविजन तारे, हे जिनवर ! मुझको भी तारो।
हे वर्तमान जिनशासन नायक ! मेरी विनती स्वीकारो॥1॥
प्रभु नह्वन समय बल जान इन्द्र ने वीर नाम को उच्चारा।
पलना में दर्शन से निशंक हो, मुनि ने सन्मति स्वीकारा।
नागों के सह क्रीडा में निर्भय, महावीर कहलाये हो।
उपसर्गों में तुम अचल रहे तब, महति वीर सुर भाये हो॥ 2 ॥
श्री कान्ति आदि गुण वर्धन से, श्री वर्द्धमान कहलाये हो।
सब जग के उपकारी जिनवर भक्तों के हृदय समाये हो।
दुख सागर में डूबे जीवों को, तिरने आप सहारा हैं।
तुमने हितकर प्रवचन द्वारा, अनगिन जीवों को तारा है ॥3॥
तुम पंचम बाल ब्रह्मचारी अन्तिम सन्मति तीर्थंकर हो।
तुम जैन दिगम्बर परम्परा के महाश्रमण क्षेमंकर हो।
प्रभु तीस वर्ष में दीक्षा ली, तब दो दिन का उपवास किया।
शुभ कूल ग्राम के कूल नृपति ने, गोक्षीरान्न अहार दिया॥ 4 ॥
चेटक नृप की कन्या चंदन भी दे आहार कृतार्थ हुई।
वह शील शिरोमणि सती चंदना, बंध मुक्त हो धन्य हुई।
सन्मति द्वादश वर्षों तप कर जिन केवलज्ञानी हो जाते।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह जन, दीक्षा ले गणधर भाते॥ 5॥
थे अंग पूर्वधर तीन शतक नव सहस्त्र नव शत शिक्षक थे।
तेरह सौ अवधिज्ञानधर थे, केवलज्ञानी सत सौ रहते।
थे विक्रियर्द्धि मुनिवर नव शत, पन शत मनपर्यय ऋषिवर थे।
थे चार शतक वादीश श्रमण, सब चौदह हजार मुनिवर थे ॥ 6 ॥
चंदनवाला गणिनी आर्या, थीं छत्तिस सहस्त्र सब आर्या।
इक लख श्रावक त्रय लाख श्राविका, शोभें शीलवतीं नार्या।
थे सुर समूह तो असंख्यात, पशु गण संख्यात सभासद् थे।
हे मृदु मन ! वीर जिनेश भजो सन्मति जिनधर्म सभापति थे॥ 7 ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्धं निर्व. स्वाहा।
महावीर भगवान का, सिंह चिन्ह पहचान।
विद्यासागर सूरि से, ‘मृदुमति’ पाती ज्ञान ॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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