कविवर ज्ञानतराय
आडिल्ल
उत्तम छिमा मारदव आरजव भाव है,
सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं |
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दस सार हैं,
चहुँगति दुखते काढि मुक्ति करतार हैं ||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय ! अत्र अवतर अवतर संवौषट !
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: !
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट !
अष्टक
हेमाचलकी धार,मुनि-चित सम शीतल सुरभि |
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाये जलं निर्वपामिति स्वाहा|
चन्दन केसर गार, होय सुवास दसों दिशा|
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय संसारताप-विनाशनाये चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा|
अमल अखंडित सार, तंदुल चन्द्र समान शुभ |
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय अक्षय-पद प्राप्ताये अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा|
फुल अनेक प्रकार, महके ऊरघ -लोकलों|
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय काम-बाण विध्वंसनाये पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा|
नेवज विविध निहार, उत्तम षट-रस संजुगत|
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय क्षुधा-रोग विनाशनाये नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा|
बाती कपूर सुधार, दीपक-जोती सुहावनी|
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय मोहान्धकार-विनाशनाये दीपं निर्वपामिति स्वाहा|
अगर धुप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता|
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय अष्ट-कर्म-दह्नाये धूपं निर्वपामिति स्वाहा|
फल की जाति अपार, घ्राण-नयन-मन-मोहने |
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय महामोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामिति स्वाहा|
आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाहसौ |
भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय अनर्घ-पद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
सोरठा:-
पीडे दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करम |
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ||
उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस पर-भव सुखदाई |
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो ||
कहि हैं अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करे |
घर ते निकारे तन विदारे, बैर जो न तहां धरे ||
तै करें पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जियरा |
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ||१||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में |
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ||
उत्तम मार्दव गुन मनमाना, मान करन को कोन ठिकाना |
वस्यो निगोद माहि तै आया, दमरी रुकन भाग बिकाया ||
रुकन बिकाया भाग वशतै, देव एक-इंद्री भया |
उत्तम मुआ चांडाल हुवा, भूप कीड़ो में गया ||
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा |
करी विनय बहु-गुन बड़े जनकी, ज्ञान का पावे उदा ||२||
ॐ ह्रीं उत्तम-मार्दव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
कपट न कीजे कोई, चोरन के पूर ना बसे|
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ||
उत्तम आर्जव रीती बखानी, रंचक दगा बहुत दुःख दानी |
मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन से करिये ||
करिये सरल तिहु जोग अपने, देख निर्मल आरसी |
मुख करे जैसा लखै तेसा, कपट-प्रीति अंगारसी ||
नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बन्ध विशेषता |
भय त्यागी दूध बिलाव पीवे, आपदा नहीं देखता ||३||
ॐ ह्रीं उत्तम-आर्जव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
धरी हिरिदे संतोष, करहु तपस्या देह सों|
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में||
उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना|
आशा-पास महा दुःख दानी, सुख पावे संतोषी प्रानी||
प्रानी सदा शुची शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभाव तै|
नित गंग जमुन समुंद्र नहाये, अशुचि-दोष स्वाभाव तै||
ऊपर अमल मल भरयो भीतर, कौन विधि घट सूचि कहे|
बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गन साधू लहे ||४||
ॐ ह्रीं उत्तम-शौच धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
कठिन वचन मत बोल, पर निंदा अरु झूठ तज|
सांच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी||
उत्तम-सत्य-वरत पा लीजे, पर-विश्वातघात नहीं कीजे|
साचे-झूठे मानुष देखो, आपण पूत स्वपास न पेखो||
पेखो तिहायत पुरुष साचे, को दरब सब दीजिये|
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये||
ऊँचे सिंहासन बैठे वसु नृप, धरं का भूपति भया|
वच झूठ सेती नरक पंहुचा, सुरग में नारद गया ||५||
ॐ ह्रीं उत्तम-सत्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो|
संयम रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं||
उत्तम संयम गहू मन मेरे भव-भव के भाजे अघ तेरे|
सुरग-नरक पशुगति में नाही, आलस हरन करन सुख ठाही||
ठाही पृथ्वी जल आग मारुत, रुख त्रस करुना धरो|
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो||
जिस बिना नहीं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कीच में|
इक घरी मत विसरो करी नित, आव जम मुख बीच में ||६||
ॐ ह्रीं उत्तम-संयम धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
तप चाहे सुरराय, करम शिखर को वज्र हैं |
द्वादस विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम ||
उत्तम तप सब माहि बखाना, करम-शैल को वज्र समाना |
वस्यो अनादी निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ||
धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता |
श्रीजैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ||
अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै |
नर-भव अनुपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै ||७||
ॐ ह्रीं उत्तम-तप धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
दान चार परकार, चार संघ को दीजिये |
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिये ||
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शाष्त्र अभय सहारा |
निहचे राग द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे ||
दोनों संभारे कूप-जल सम, दरब घर में परिनया |
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ||
धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को |
बिन दान श्रावक साधू दोनों, लहैं नहीं बोध को ||८||
ॐ ह्रीं उत्तम-त्याग धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करे मुनिराज जी |
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइये ||
उत्तम अकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुःख ही मानो |
फाँस तनस सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुःख भाले ||
भाले न समता सुख कभी नर, बिन मुनि मुद्रा धरें |
धनि नगन पर तन-नगन ठाई, सुर-असुर पायनी परै ||
घरमाहीं तिसना जो घटावे, रूचि नहीं संसार सौ |
बहु धन बुरा हु भला कहिये, लीं पर उपगार-सौ ||
ॐ ह्रीं उत्तम-आकिंचन धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्मा भाव अंतर लखो|
करी दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा ||
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानो|
सहे बान-वरषा बहु सुरे, टिके न नैन-बान लखि कुरे ||
कुरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें|
बहु मृतक सडहिं मसान माहीं, काग ज्यो चोच भरे ||
संसार में विष बेल नारी, तजि गए जोगिश्वरा |
नत धरं दस पैडी चढ़ीके, शिव-महल में पग धरा ||
ॐ ह्रीं उत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा|
जयमाला
दस लच्छन वंदो सदा, मनवांछित फलदाय |
कहो आरती भारती, हम पर होहु सहाय ||
उत्तम क्षिमा जहाँ मन होई, अंतर-बाहिर शत्रु न कोई |
उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे , नाना भेद ज्ञान सन भासे ||
उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागी सुगति उपजावे |
उत्तम सत्य वचन मुख बोले, सो प्राणी संसार न डोले ||
उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन भण्डारी |
उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सकल करे ले साता ||
उत्तम तप निर्वांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले |
उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ||
उत्तम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधी दसा विस्तारे |
उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकती-फल पावे ||
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय जयमाला पूर्णार्घम निर्वपामिति स्वाहा|
दोहा:-
करे करम की निरजरा, भव पिंजरा विनाश |
अजर अमर पद को लहे, द्यानत सुख की राश ||
||इत्याशिर्वाद||
||पुष्पांजलि क्षिपित||
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