पुष्पमंजरी छन्द – रजरजर – गण
तर्ज-देव आप दर्श से…………..
सिंहसेन तात मात सूर्या पुत्र हो गये।
हे अनन्तनाथ आप कर्म मुक्त हो गये॥
वीतराग वीतद्वेष आप वीतकाम हो।
पूजने बुला रहे हृदै विराजमान हो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
कूप नीर छान के जिवानी कूप में करूँ।
अग्नि से अचित्त होय, स्वर्ण पात्र में भरूँ॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध गन्ध पात्र धार पूज्य पाद पूजते।
दुःख ताप दूर हो जिनेन्द्र आप्त अर्चते॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्र रश्मि के समान स्वच्छ शालि तन्दुला।
स्वच्छ पात्र से चढ़ा अनन्त पूजते भला॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध चित्त पुष्प से जिनेन्द्र देव अर्चना।
कामबाण नाश हो निजात्म वास प्रार्थना॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ।
शुद्ध खाद्य भी तजूँ निवेद्य से उपासना
हे जिनेश शक्ति दो नशे स्व भूख वासना॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह अन्ध नाशने सुदीप ज्ञान का धरूँ।
आप ज्ञान सूर्य की उपासना सदा करूँ॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म धूप की करूँ सुध्यान अग्नि को करूँ।
हे जिनेश आपके समीप ध्यान को धरूं॥
हे अनन्तनाथ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पक्व शुष्क स्वाद्य पूर्ण द्राक्ष आदि से यजूँ।
पूज्य पाद आप्त के पदारविन्द को भजूँ॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्य मूल्यवान स्वर्ण थाल में भरूँ।
मोक्ष प्राप्ति के लिए जिनेन्द्र पाद में धरूँ॥
हे अनन्तनाथ ! आप ज्ञान दान दीजिए।
कर्म बन्ध से बचूँ कषाय हान कीजिए॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
द्रुतविलम्बित छन्द – नभभर- गण
लय-उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकैश…….
असित कार्तिक एकम के दिना, गरभ का दिन मंगल पावना।
हरि शची करती जिन अर्चना, हम करें प्रभु से शिव प्रार्थना ॥
ओं ह्रीं कार्तिककृष्णप्रतिपदायां गर्भकल्याणमण्डित श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
जनम ज्येष्ठ वदी तिथि द्वादशी, अवध भूमि सु मंगल से लसी।
हरि जिनेश्वर स्नान करा रहे, सुर सुरी नर मंगल गा रहे॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
भव शरीर विनश्वर भावनी, असित ज्येष्ठ सु बारस पावनी।
सकल इन्द्र भजें गुण गाय के, हम यजें नित शीश नवाय के॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां तपः कल्याणमण्डित श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्थं।
असित चैत अमावस वासती, परम केवलज्ञान प्रकाशती।
रचि कुबेर सुधर्म सभा महाँ, जिन विहार करें ठहरें जहाँ॥
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
असित चैत अमावस पा सही, क्षय अघाति किये शिवता लही।
जिन अनन्त गये शिव थान को, शिखरजी यशवन्त विधान को॥
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
पौन पल्य नवदधि गये, पाव पल्य मुनि छेद ।
तीस लाख वर्षायु थी, जन्म अनन्त सुवेद ॥
पचास धनु उत्तुंग तनु, स्वर्ण वर्ण जिन देह |
सहस्त्र वसु लक्षण सहित, जिनवर भजूँ सनेह ॥
चौपाई छन्द
उल्कापात देख वैरागी, अनन्त तीर्थंकर बड़भागी।
तत्क्षण लौकान्तिक सुर आये, तप थुति करके शीश नवाये॥
शुभा पालकी सागरदत्ता, परिग्रह त्याग लही गुणवत्ता।
दो दिन का उपवास सुधारा, सहस्र नृप सह तप को धारा॥
नृप विशाख दाता बड़भागी, पुर साकेत धर्म अनुरागी।
पंचाश्चर्य प्रकट होते हैं, सुर नर पाप कर्म धोते हैं॥
जय आदिक पचास गणधर थे, छ्यासठ सहस सर्व मुनिवर थे।
सर्वश्री आर्या मुख्या थी, इक लख आठ सहस संख्या थी।
छह हजार इक सौ मुनि साथी, अनन्त शिव जाते संख्या थी।
गिरि सम्मेद शिखर यश पाता, मृदुता से जग शीश नवाता॥
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सेही अंकित पाद में, अनन्त जिन पहचान ।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान ॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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