Siddhapuja hirachand

मातृकाछन्द-लय झूलना

हे ऋषभ देव! तेरी, शरण आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये।
बड़े बाबा! तुम्हारी, शरण आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ॥
नाभि मरुदेवी सुत, आदि जिन की शरण,
नाशती है जरा मृत्यु, भव भव मरण ।
शोक सागर उभरने, तरणि पा गये.
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये।
तुमने दुष्टाष्ट कर्मों को, चूरण किया,
तुमने ज्ञानादि गुण को, सुपूरण किया।
कर्म से मुक्ति पाने, यहाँ आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये।
ओं ह्रीं तीर्थंकरआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।

ज्ञान का आवरण, तुम हटा दो प्रभो,
ज्ञान कैवल्य मुझमें, जगा दो विभो ।
नीर ले ज्ञान पाने, यहाँ आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

दर्श का आवरण, काट दो आदि जिन,
नन्त कैवल्य दर्शन, दिखा दो प्रथम ।
गंध ले दर्श पाने, यहाँ आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ||
ओं ह्री श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

वेदनी दुख भरी, लेश सुख वेदती,
जीव व्याकुल करे, रात दिन खेदती ।
नित निराकुल बने, रत्न ले आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

मोह मँझधार है, मोक्ष उस पार है,
वीतरागी तरणि से, तिरे धार है
पुष्प ले मोह तिरने, यहाँ आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ॥
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

आयु बन्धन रहा, चार गति में रुका,
आत्म अवगाहना, निज में कर ना सका ।
चरु ले निर्बन्ध होने, यहाँ आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ॥
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

देह का दण्ड मिलता है, विधि नाम से,
देह दुख नाश हो, आपके ध्यान से।
दीप ले सूक्ष्म गुण पाने, हम आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ॥
ओं ह्री श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

उच्च का नीच का, भेद पाते रहे,
वंद्य का निंद्य का, दुख उठाते रहे।
धूप ले आत्म गुण, पाने हम आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

दान लाभादि का, योग पा ना सके,
विघ्न से आत्म हित को, न कर ही सके ।
फल ले आतम का बल, पाने हम आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये
ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

अष्ट विधि नष्ट कर, आत्म गुण पा गये,
कर्म को जीत, निर्बाध सुख पा गये।
अर्घ ले मोक्ष पाने को, हम आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये ॥
हे ऋषभ देव! तेरी, शरण आ गये,
मुझे दुख से उभरने, चरण भा गये
बड़े बाबा! तुम्हारी, शरण आ गये,
भव दुखों से उभरने, चरण भा गये ||
ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक अर्घ- छन्द सखी
आषाढ द्वितीया असिता, गर्भागम पुरु का लसता ।
मरुदेवी माँ हर्षाती, साकेत पुरी सुख पाती
ओं ह्रीं आषाढकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणमण्डित श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ ।

चैत्री असिता नवमी थी, पुरुदेव जन्म की तिथि थी ।
नृप नाभिराय आंगन में, जन्मोत्सव मने गगन में ॥
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां जन्मकल्याणमण्डितश्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।

प्रभु जन्मदिवस तप धारा, खोला मुनि पद का द्वारा ।
षण्मासी अनशन धारा, पुरुदेव स्वयंभू न्यारा
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां तपः कल्याणमण्डित श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।

फाल्गुन एकादशि कारी, प्रभु पूर्ण ज्योति उजियारी ।
हुई समवसरण की रचना, प्रभु के सुनते भवि वचना ॥
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां ज्ञानकल्याणमण्डितश्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।

माघी कृष्णा चौदस को, आदीश्वर अष्टापद को ।
जा अन्तिम ध्यान लगाया, प्रभु ने शिवपुर को पाया ॥
ओं ह्रीं माघकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।

जयमाला ( यशोगान )
भोगभूमि का अन्त था, कर्मभूमि शुरुवात।
जिसमें श्री पुरुदेव से, कर्म धर्म की बात ॥1॥

कुसुमलता लय-ज्ञानोदय छन्द
पिता नाभिराजा चौदहवें, कुलकर थे क्षायिक दृग धार ।
माता मरुदेवी से जन्में, तीर्थंकर पहले अवतार ॥
जम्बूद्वीप भरत में था जब अवसर्पण का तीजा काल ।
इसी काल के अन्त समय में जन्मे ऋषभ देव सुत बाल ॥2॥

ज्ञानोदय छन्द
भोगभूमि में कल्पवृक्ष से, सभी भोग उपभोग मिले।
जीवन के निर्वाहन कारण, जो माँगो वह सभी मिले ॥
कर्मभूमि के आने से वे पदार्थ मिलना बन्द हुये ।
ऋषभदेव के समझाने पर, जन के खिलते बन्द हिये ॥3॥

असि मषि कृषि विद्या वाणिज्या, शिल्प कला षट् कर्म कहे।
अंक अक्षरों की विद्या का, प्रभु के मुख से ज्ञान बहे ॥
लख तेरासी पूर्व अभी तक, बीता काल आदि प्रभु का।
मात्र लाख इक पूर्व रहा था, जीवन आयुष पुरु प्रभु का ॥4॥

धर्म तीर्थ वर्तन कब होगा, कब प्रभुवर दीक्षा लेंगे।
कब कैवल्य ऋषभ प्रभु पायें, कब प्रभु शिक्षा को देंगे ॥
इस चिन्ता से इन्द्र देव ने एक नर्तकी बुलवायी ।
अल्प आयुषी नील अंजना, राजसभा में नचवायी ॥5॥

नृत्य पूर्ण नहिं हो पाया पर, आयु सुरी की पूर्ण हुई।
नश्वर आयु जानकर प्रभु की इच्छायें सब चूर्ण हुईं ॥
लौकान्तिक देवों से स्तुत हो, बैठ पालकी सुदर्शना ।
सिद्धारथ वन में दीक्षित हो, षण्मासी उपवास ठना ॥5॥

जब भिक्षा चर्या को निकले, तब कोई विधि ना जाने ।
सात मास नव दिवस अयोध्या, आदि नगर प्रभु ने छाने ॥
इस विध तेरह मास दिवस नव, बाद मिलीं प्रभु को विधियाँ ।
हथिनापुर में श्रेयो नृप ने, स्वप्न याद कर की विधियाँ ॥7॥

नृप श्रेयांस सोम भ्राता सह, पड़गाहन करते प्रभु का।
इक्षु सुरस आहार दान दे, जय जयकार करें पुरु का ॥
एक हजार वर्ष तप करके, केवलज्ञानी हो जाते।
शेष काल उपदेश दान कर, मोक्षपुरी में बस जाते ॥8॥

भरत बाहुबलि आदि पुत्र भी, दीक्षित हो शिव को जाते।
अष्टापद से पिता पुत्र द्वय, मोक्ष लक्ष्मी को पाते ॥
वृषभसेन सुत दीक्षा लेकर, प्रथम श्रमण गणधर बनते ।
सभी गणीश्वर चौरासी थे, अनन्त सुत भी मुनि बनते 11911

अनन्त सुत प्रभु पितु से पहले, सिद्ध शिला में जा पहुँचे ।
एक लाख तेईस सहस सब, श्रमण सप्त विध मुनि सच्चे ॥
ब्राह्मी सुन्दरी दोनों पुत्री, आर्या दीक्षा धरती हैं।
ब्राह्मी आदि पचास सहस सब, आर्या शिव पथ चलती हैं ॥10॥

पाँच लाख थीं सभी श्राविका, तीन लाख सत्श्रावक थे।
पशु संख्या में सुर असंख्य थे, सभी गुणों गायक थे ॥
ऐसे ऋषभदेव पुरुदेवा, मेरा भी उद्धार करो ।
कब से दुख सागर में डूबे अवलम्बन दे पार करो ॥11॥

प्रभु का पावन पुराण पढ़कर, मन पवित्र हो जाता है।
भव्य व्रतों में दृढ़ हो जाता, शत्रु मित्र बन जाता है ॥
अच्युत रहे व्रतों में भगवन् परिषह जीते आप घने ।
इसीलिए पुरुवर चरणों में नमन करें हम मृदुल बनें ॥12॥
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।

ऋषभदेव पुरुदेव की, वृषभ चिन्ह पहचान ।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान
॥ इति शुभम् भूयात् ॥

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Note

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