Jain Mandir me Chawal kyo Chadhaya Jata hai
जब भी आप किसी जैन मंदिर में जाते हैं, तो आपने देखा होगा कि भक्तगण पूजा के समय भगवान के समक्ष चावल या अक्षत चढ़ाते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, पर क्या आपने कभी सोचा है कि जैन धर्म में केवल चावल ही क्यों चढ़ाया जाता है? गेंहू, दाल या अन्य अनाज क्यों नहीं चढ़ाए जाते?
इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ परंपरा में नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक और दार्शनिक संदेश में छिपा है। आइए, समझते हैं इस धार्मिक प्रक्रिया के पीछे का गूढ़ तात्पर्य।
1. चावल: एक विशेष अनाज
चावल या अक्षत का अर्थ ही होता है – अक्षत यानी जिसका क्षय न हो। चावल वह अनाज है जो एक बार पकने के बाद यदि बोया जाए तो फिर से अंकुरित नहीं होता। यह दोबारा जीवन नहीं पाता, यानी जन्म-मरण के चक्र से बाहर निकल जाता है।
इस विशेषता के कारण चावल जैन धर्म में एक प्रतीक बन गया है – जन्म और मरण से मुक्ति का। जैसे यह चावल अब इस संसार में फिर से जन्म नहीं ले सकता, वैसे ही साधक भी यह कामना करता है कि वह भी मोक्ष को प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाए।
2. आध्यात्मिक भाव और साधना का संकेत
जैन धर्म आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति पर केंद्रित है। जब कोई भक्त चावल भगवान के चरणों में अर्पित करता है, तो वह केवल एक अनाज नहीं चढ़ाता – वह अपने भीतर की भावना, संकल्प और लक्ष्य को अर्पित करता है।
इस कर्म के माध्यम से वह यह प्रार्थना करता है –
“जैसे यह चावल पुनः अंकुरित नहीं होता, वैसे ही मेरी आत्मा इस संसार के मोह, माया, जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाए।”
यह केवल एक पूजा विधि नहीं, बल्कि मोक्ष की ओर बढ़ने की भावना है – आत्मा की साधना की एक कड़ी।
3. क्यों नहीं चढ़ाते गेंहू या अन्य अनाज?
अन्य अनाज जैसे गेंहू, दालें, मक्का आदि अगर बोई जाएं तो फिर से अंकुरित हो सकते हैं, यानी उनका जीवन चक्र चलता रहता है। वे जन्म-मरण के प्रतीक हैं, जबकि जैन साधना का उद्देश्य जन्म से परे जाना है।
इसलिए जैन परंपरा में इन अनाजों को चढ़ाने का कोई स्थान नहीं है। यहां प्रतीकात्मकता महत्वपूर्ण है – और चावल ही वह माध्यम बनता है जो इस भावना को दर्शाता है।
4. मोक्ष की ओर एक सरल प्रतीकात्मक यात्रा
अक्षत चढ़ाने की यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि धर्म सिर्फ बाहरी आडंबर नहीं, बल्कि भीतर की चेतना और जागरूकता का नाम है। जब हम चावल चढ़ाते हैं, तो यह सिर्फ एक अनाज नहीं होता, बल्कि यह हमारी आत्मा की मोक्ष की ओर की यात्रा का प्रतीक बन जाता है।
5. श्रद्धा, समर्पण और शुद्धता का संदेश
अंततः, चावल चढ़ाने की परंपरा हमें यह भी सिखाती है कि किसी भी धार्मिक क्रिया में शुद्ध भाव और समर्पण होना सबसे ज़रूरी है। चावल की सफेदी, उसकी सादगी और उसकी स्थिरता – ये सब उस श्रद्धा का रूप हैं, जो एक साधक को अपने आराध्य के प्रति होनी चाहिए।
निष्कर्ष
जब अगली बार आप जैन मंदिर में चावल चढ़ाएं, तो इसे केवल एक परंपरा या क्रिया न समझें। इसे अपने आत्मिक संकल्प का प्रतीक बनाएं। यह छोटा-सा कार्य आपको याद दिलाएगा कि आप भी जन्म-मरण के इस चक्र से ऊपर उठकर मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
याद रखिए – यह केवल चावल नहीं, बल्कि आपकी मोक्ष की अभिलाषा है।