योगिनी बोधिनी छन्द लय- एक सौ त्रेसठ……
नेमि तीर्थेश जिन वीतरागी हुए,
राजिमति त्याग के मुक्ति रागी हुए
बाल ब्रह्मेश जिन मम हृदय आइये,
पूजते भक्ति से दुःख हर जाइये॥
ॐ ह्रीं तीर्थंकर नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
देह से नेह तज आप संयम धरा,
पूर्ण संयम मिले लाय घट जल भरा।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
देह नश्वर समझ आपने तप धरा
पाप आतप हरो गन्ध लाये खरा।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
देह सुख त्यागकर आत्म सुख मन धरा,
हम तभी तन्दुलों से भजें जिनवरा ।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
प्राणी क्रन्दन सुना तज दिया ब्याह को,
नेमि जिन को भजूँ मेटुँ दुख दाह को।
आप निज एकला जान शिव पथ चले,
काम शर नाशने पुष्प हमने धरे।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख को मेटने आपने तप धरा,
इसलिए पूजने लाये हम चरुवरा ।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म के ज्ञान को पाने दीक्षा धरी,
नेमि पद पूजने दीपिका घृत भरी
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आपकी श्रमणता लोक में महकती,
दोष ईंधन जले तप अगनी धधकती।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए ॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पाप के पुण्य के कर्म हरने चले,
अजरमय अमरमय मोक्ष पाने चले ।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
साधना पूर्ण कर सिद्ध पद पा गये।
आपके आचरण भक्त को भा गये।
अर्घ है हाथ मे सुख अनर्धी मिले,
आत्म के गुण सभी आतमा में खिलें।
आप सी त्याग की बुद्धि मुझे दीजिए,
नेमि जिन आपकी शरण में लीजिए नेमि॥
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ
सखी छंद
कार्तिक सित षष्ठी आयी, माँ शिवदेवी हरषायी।
नेमीश गर्भ में आये, शौरीपुर मंगल गाये॥
ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठ्यां गर्भकल्याणमण्डितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्ध।
श्रावण सित षष्ठी आयी, त्रिभुवन में खुशियाँ छायीं।
जन्मे नेमीश कुमारा, पितु समुद्रविजय का प्यारा॥
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठ्यां जन्मकल्याणमण्डितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
राजुल को ब्याहन जाते, पशु रुदन सुनत वन जाते।
प्रभु जन्म दिवस तप धारा, विषयों से किया किनारा॥
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ट्यां तपःकल्याणमण्डित श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
छप्पन दिन तप के बीते, चउ कर्म घातिया रीते।
आश्विन अलि एकम आयी, कैवल्य ज्ञान को लायी॥
ओं ह्रीं आश्विनशुक्लप्रतिपदायां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्ध।
आषाढ़ सप्तमी सित की, विधि अघाति नेमि विजित की।
प्रभु ऊर्जयन्त गिरिनारी, वरते सुखदा शिवनारी॥
ओं ह्रीं आषाढ़ शुक्लाष्टम्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
यशोगान
दोहा
वर्ष पाँच लख बीतते, नमि जिन के शिव बाद।
नेमिनाथ जन्मे जभी, तभी मिला हित वाद॥
विद्यार्थना छन्द-लय-हे वीर तुम्हारे द्वारे पर
हे नेमिनाथ जिनवर तुमने, अपना पर का उद्धार किया।
निज ब्याह राजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
जूनागढ़ के नृप उग्रसेन की, कन्या राजमती वरने ।
बारात निकलती शौरीपुर से, नेमिनाथ परिणय करने ॥
पथ में पशु देखे घिरे हुए, प्रभु ने सारथि से प्रश्न किया।
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
सारथि ने उत्तर दिया प्रभो, जो म्लेच्छ ब्याह में आयेंगे॥
उनके भोजन को मूक प्राणि ये, प्रभुवर मारे जायेंगे।
इतना सुन रथ से उतर गये दूल्हा शृंगार उतार दिया॥
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
प्रभु बोले वन जिनका घर है, तृण जल ही जिनका भोजन है।
जो निरपराध विचरण करते, फिर वध का क्यों आयोजन है॥
खुद पहनो पादत्राण आप क्यों नहिं, पशु दया विचार किया।
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
जिवा लोलुपता के कारण क्यों जीवों का वध करते हो॥
क्यों मांसाहार ग्रहण करके, तुम दुखद नरक में पड़ते हो।
इन्द्रिय विषयों में सौख्य नहीं, यह प्रभुवर ने उपदेश दिया।
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
संसार असार अनित्य जान प्रभु, भव भोगों से विरत हुए॥
त्यों लौकान्तिक सुर भू पर आ, तप अनुमोदन में निरत हुए।
हे नेमिनाथ प्रभु धन्य आप हो, तपश्चरण मन धार लिया॥
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
ज्यों राजमती को खबर मिली तो मूर्च्छित होकर भूमि पड़ी।
उठ जा बेटी अब खेद न कर, दूजा वर ढूँढ़ें योग्य घड़ी॥
राजुल कहती नहिं व्याह करूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय ठान लिया।
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया।
राजुल सुकुमारी नार राह पर गिरती उठती जाती है।
आर्या दीक्षा का भाव लिए, वैरागी मूरत भाती है॥
आर्या दीक्षा लेकर राजुल ने, दृढ़तम असि व्रत धार लिया।
राजुल ने वैरागी प्रिय का, शिव पथ केवल अनुसरण किया॥
नेमीश्वर छप्पन दिन तप कर, परिपूर्ण बोध को पाते हैं॥
उपदेश दिया भारत भू पर, करुणिक इतिहास रचाते हैं।
वरदत्तादिक इकदश गणधर, सब श्रमण अठारह सहस रहे॥
राजीमती आदि आर्यिकायें, चालीस हजार जिनेश कहें।
श्रावक इक लाख तिगुण गृहिणी, सबने व्रत तप स्वीकार लिया॥
राजुल ने वैरागी प्रिय का, शिव पथ केवल अनुसरण किया॥
इक सहस्र वर्ष की आयु मिली, दश धनुष देह ऊँचाई थी।
त्रय शत वर्षायुष कौमारी, नीलाभा तन रँग लायी थी॥
छप्पन दिन तप पूर्ण किये, फिर केवलज्ञान उजार लिया।
हे नेमिनाथ जिनवर तुमने, अपना पर का उद्धार किया।
छह सौ निन्यानव वर्ष माह नव, दिन चउ तक उपदेश दिया॥
पन शत तेतीस श्रमण सह तुम, नेमीश योग का रोध किया।
इक माह बाद उन सब मुनि ने गिरिनारी से भव पार किया॥
हे नेमिनाथ जिनवर तुमने, अपना पर का उद्धार किया॥
निज ब्याह तजा पशु क्रन्दन सुन, पशु बन्धन का परिहार किया॥
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।
शंख चरण में लस रहा, नेमिनाथ पहचान।
शील डोर मृदु दृढ़ करो, पहुँच जाऊँ शिव थान॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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