Parasnath Bhagwan

भगवान पार्श्वनाथ का जीवन परिचय

भगवान पार्श्वनाथ(Parshvanath) जैन धर्म के तेइसवें (23वें) तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी के भेलूपुर में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया।

केवल ज्ञान की प्राप्ति

भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में ही गृह त्याग कर संन्यासी हो गए। 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वाराणसी के सम्मेद पर्वत पर इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था।

पार्श्वनाथ भगवान का इतिहास

  • भगवान पार्श्वनाथ का चिन्ह- उनका चिन्ह सर्प है।
  • जन्म स्थान – वाराणसी के भेलूपुर
  • जन्म कल्याणक – पूर्व पौष कृष्‍ण एकादशी
  • केवल ज्ञान स्थान –काशी
  • दीक्षा स्थान – बनारस
  • पिता – राजा अश्वसेन
  • माता –रानी वामादेवी
  • देहवर्ण- हरा
  • भगवान का वर्ण- क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
  • लंबाई/ ऊंचाई- 9 हाथ
  • आयु- 100 वर्ष
  • वृक्ष- अशोक
  • यक्ष – धरणेन्द्र
  • यक्षिणी – पद्मावती
  • प्रथम गणधर –श्री शुभदत्त
  • गणधरों की संख्या – श्वेतांबर परंपरा– 8, दिगंबर परंपरा– 10

जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में काल चक्र का अवरोही भाग, अवसर्पिणी गतिशील है और इसके चौथे युग में २४ तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। एक कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण के चाचा अश्वसेन के पुत्र बचपन से ही अहिंसा विचार धारा से ओतप्रोत थे। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैनेश्वरी दीक्षा ली थी।

उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहाँ पंचाग्नि जला रहा है, और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है, तब पार्श्व ने कहा— ‘दयाहीन’ धर्म किसी काम का नहीं’।

🙏 पार्श्वनाथ का निर्वाण

अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे। श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ। 

भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे। ऐसे 23वें तीर्थंकर को भगवान पार्श्वनाथ शत्-शत् नमन्।

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Note

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