Advertise With Us

भावना बत्तीसी | Bhavna Battisi

भावना द्वात्रिंशतिका

आचार्य अमितगति

मेरा आतम सब जीवों पर मैत्री भाव करे
गुणगणमंडित भव्य जनों पर प्रमुदित भाव धरे |
दीन दुखी जीवों पर स्वामी! करुणाभाव करे
और विरोधी के ऊपर नित समताभाव धरे ||1||

तुम प्रसाद से हो मुझमे वह शक्ति नाथ! जिससे
अपने शुद्ध अतुल बलशाली चेतन को तन से |
पृथक कर सकूं पूर्णतया मैं जो योद्धा रण में
खीचें जिन तलवार म्यान से रिपु सन्मुख क्षण में ||2||

छोड़ा है सब में अपनापन मैंने मन मेरा
बना रहे नित सुख में दुःख में समता का डेरा |
शत्रु-मित्र में, मिलन-विरह में, भवन और वन में
चेतन को जाना न पड़े फिर नित नूतन तन में ||3||

अंधकार नाशक दीपक-सम अडिग चरण तेरे
अहो! विराजे रहें हमेशा उर ही में मेरे |
हों मुनीश! वे घुले हुए से या कीलित जैसे
अथवा खुदे हुए से हों या प्रतिबिम्ब जैसे ||4||

हो प्रमाद वश जहाँ-तहां यदी मैंने गमन किया
एकेंद्रिय आदिक जीवों को घायल बना दिया |
पृथक किया हो या भिड़ा दिया हो अथवा दबा दिया
मिथ्या हो दुष्कृत वो मेरा प्रभुपद शीश किया ||5||

चल विरुद्ध शिव-पथ के मैंने जो दुर्मति होके
होके वश में दुष्ट इन्द्रियों और कषायों के |
खंडित को जो चरित्र-शुद्धी वह दुष्कृत निष्फल हो
मेरा मन भी दुर्भावों को तजकर निर्मल हो ||6||

मन्त्र शक्ति से वैद्य उतारे ज्यों अहि-विष सारा
त्यों अपनी निंदा-गर्हा वा आलोचन द्वारा |
मन वच तन से कषाय से संचित अघ भारी
भव दुःख के कारण नष्ट करूं मैं होकर अविकारी ||7||

धर्म-क्रिया में मुझे लगा जो कोई अघकारी
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार भारी
कुमति, प्रमाद-निमित्तक उसका प्रतिक्रमण करता
प्रायश्चित्त बिना पापों को कौन कहाँ हरता? ||8||

चित्त शुद्धी की विधि की क्षति को अतिक्रमण कहते
शीलबाड़ के उल्लंघन को व्यतिक्रमण कहते |
त्यक्त विषय के सेवन को प्रभु! अतीचार कहते
विषयासक्तपने को जग में अनाचार कहते ||9||

शास्त्र पठन में मेरे द्वारा यदि जो कहीं- कहीं
प्रमाद से कुछ अर्थ, वाक्य, पद, मात्रा छुट गयी |
सरस्वती मेरी उस त्रुटी को कृपया क्षमा करें
और मुझे कैवल्यधाम में माँ अविलम्ब धरे ||10||

वांछित फलदात्री चिंतामणि सदृश मात! तेरा
वंदन करने वाले मुझको मिले पता मेरा |
बोधि, समाधि, विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको
मिले और मैं पा जाऊं माँ! मोक्ष-महासुख को ||11||

सब मुनिराजों के समूह भी जिनका ध्यान करें
सुर-नरों के सारे स्वामी जिन गुणगान करें |
वेद, पुराण, शास्त्र भी जिनके गीतों के डेरे
वे देवों के देव विराजें उर में ही मेरे ||12||

जो अनंत-दृग-ज्ञान-स्वरूपी सुख-स्वभाव वाले
भव के सभी विकारों से भी जो रहे निराले |
जो समाधि के विषयभूत हैं परमातम नामी
वे देवों के देव विराजें मम उर में स्वामी ||13||

जो भव दुःख का जाल काट कर उत्तम सुख वरते
अखिल विश्व के अंत: स्थल का अवलोकन करते |
जो निज में लवलीन हुए प्रभु ध्येय योगियों के
वे देवों के देव विराजें मम उर के होके ||14||

मोक्षमार्ग के जो प्रतिपादक सब जग उपकारी
जन्म मरण के संकट आदि से रहित निर्विकारी |
त्रिलोकदर्शी दिव्य-शरीरी सब कलंकनाशी
वे देवों के देव रहें मम उर में अविनाशी ||15||

आलिंगित हैं जिनके द्वारा जग के सब प्राणी
वे रागादिक दोष न जिनके सर्वोत्तम ध्यानी |
इन्द्रिय-रहित परम-ज्ञानी जो अविचल अविनाशी
वे देवों के देव रहें मम उर के ही वासी ||16||

जग-कल्याणी परिणिति से जो व्यापक गुण-राशि
भावी-सिद्ध, विबुद्ध, जिनेश्वर, कर्म-पाप-नाशी |
जिसने ध्येय बनाया उसके सकल-दोष-हारी
वे देवों के देव रहें मम उर में अविकारी ||17||

कर्म कलंक दोष भी जिनको न छूने पाते
ज्यों रवि के सन्मुख न कभी तम समूह आते |
नित्य निरंजन जो अनेक हैं और एक भी हैं
उन अरिहंत देव की मैंने सुखद शरण ली है ||18||

जगतप्रकाश जिनके रहते सूर्य प्रभाधारी
किंचित भी ना शोभा पाता जिनवर अविकारी |
निज आतम में हैं जो सुस्थित स्ग्यं-प्रभाशाली
उन अरिहंत देव की मैंने सुखद शरण पा ली ||19||

जिनका दर्शन पा लेने पर प्रकट झलक आता
अखिल विश्व से भिन्न आतमा जो शाश्वत ज्ञाता |
शुद्ध, शांत, शिवरूप आदि या अंतविहीन बली
उन अरिहंत देव की मुझको अनुपम शरण मिली ||20||

जो मद, मदन, ममत्व, शोक, भय, चिंता, दुःख, निद्रा
जीत चुके हैं निज-पौरुष से कहती जिन-मुद्रा |
ज्यों दावानल तरु-समूह को शीघ्र जला देता
उन अरिहंत देव की मैं भी सुखद शरण लेता ||21||

ना पलाल पाषाण न धरती हैं संस्तर कोई
न विधिपूर्वक रचित काठ का पाटा भी कोई |
कारण, इन्द्रिय वा कषाय रिपु जीते जो ध्यानी
उसका आतम ही शुचि-संस्तर माने सब ज्ञानी ||22||

ना समाधि का साधन संस्तर न ही लोक पूजा
ना मुनि-संघों का सम्मेलन या कोई दूजा |
इसलिए हे भद्र! तुम सदा आत्मलीन बनो
तज बाहर की सभी वासना कुछ ना कहो-सुनो ||23||

पर-पदार्थ कोई ना मेरे थे, होंगे, ना हैं
और कभी उनका त्रिकाल में हो पाउँगा मैं |
ऐसा निर्णय करके पर के चक्कर को छोड़ो
स्वस्थ रहो नित भद्र! मुक्ति से तुम नाता जोड़ो ||24||

तुम अपने में अपना दर्शन करने वाले हो
दर्शन-ज्ञानमयी शुद्धात्म पर से न्यारे हो |
जहाँ कहीं भी बैठे मुनिवर अविचल मन-धारी
वहीँ समाधि लगे उनकी जो उनको अति-प्यारी ||25||

नित एकाकी मेरे आतम नित अविनाशी है
निर्मल दर्शन ज्ञान-स्वरूपी स्व-पर-प्रकाशी है |
देहादिक या रागादिक जो करम जनित दिखते
क्षणभंगुर हैं वे सब मेरे कैसे हो सकते? ||26||

जहाँ देह से एकता नहीं जो जीवनसाथी
वहां मित्र सुत वनिता कैसे हो मेरे साथी |
इस काया के ऊपर से यदी चर्म निकल जाये
रोमछिद्र तब कैसे इसके बीच ठहर पाए ||27||

भव वन में संयोगों से यह संसारी-प्राणी
भोग रहा है कष्ट अनेकों ख न सके वाणी |
अतः त्याज्य है मन वच तन से वह संयोग सदा
उसको, जिसको इष्ट हितैषी मुक्ति विगत विपदा ||28||

भव वन में पड़ने के कारण हैं विकल्प सारे
उनका जाल हटाकर पहुचों शिवपुर के द्वारे |
अपने शुद्धातम का दर्शन तुम करते-करते
लीन रहो परमातम-तत्व में दुखों को हरते ||29||

किया गया जो कर्म पूर्व भव में स्वयं जीव द्वारा
उसका ही फल मिले शुभाशुभ अन्य नहीं चारा |
औरों के कारण यदि प्राणी सुख-दुःख को पाता
तो निज-कर्म अवश्य स्वयं ही निष्फल हो जाता ||30||

अपने अजित कर्म बिना इस प्राणी को जग में
कोई अन्य न सुख-दुःख देता कहीं किसी डग पे |
ऐसा अडिग विचार बना क्र तुम निज को मोड़ो
“अन्य मुझे सुख-दुःख देता है” ऐसी हठ छोड़ो ||31||

परमातम सबसे न्यारे हैं, अतिशय अविकारी
अंत अमितगति से वन्दित हैं शम दम समधारी |
जो भी भव्य मनुज प्रभुवर को निज उर में लाते
वे ही निश्चित उत्तम वैभव मोक्ष महल पाते ||32||

दोहा
जो ध्याता जगदीश को, ले यह पद बत्तीस |
अचल-चित्त होकर वही, बने अचलपद ईश ||33||

*****

Note

Jinvani.in मे दिए गए सभी स्तोत्र, पुजाये, आरती आदि, भावना बत्तीसी | Bhavna Battisi जिनवाणी संग्रह संस्करण 2022 के द्वारा लिखी गई है, यदि आप किसी प्रकार की त्रुटि या सुझाव देना चाहते है तो हमे Comment कर बता सकते है या फिर Swarn1508@gmail.com पर eMail के जरिए भी बता सकते है।

sahi mutual fund kaise chune

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top