Dev Shastra Guru Pooja

जिनस्तोत्रम् (प्रस्तावना)

स्वयंभूवे नमस्त्युभ्यमुत्पाद्यात्मान मात्मनि।
स्वात्मनैव तथोद्भूत वृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ॥१॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! आपने स्वयम् अपने आत्मा को प्रकट किया है, अर्थात् आप अपने आप उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू कहलाते हैं।
आपको आत्मवृत्ति अर्थात् आत्मा में ही लीन अथवा तल्लीन रहने योग्य चारित्र तथा अचिन्त्य महात्म्य की प्राप्ति हुई है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।

नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोस्तु ते।
विदावरं नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥
अन्वयार्थ : आप जगत के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो, आप अंतरंग तथा बहिरंग दोनों लक्ष्मी के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो ।
आप विद्वानों मे और वक्ताओं में भी श्रेष्ठतम है, इसलिये भी आपको मेरा नमस्कार हो।

कर्मशत्रुहणं देव मानमन्ति मनीषिणः।
त्वामानमन्सुरेण्मौलि-भा-मालाऽभ्यर्चितक्रमम् ॥३॥
अन्वयार्थ : हे देव ! बुध्दिमान आपको कामदेव रूपी शत्रु का नाश करनेवाला मानते हैं, तथा इन्द्र भी अपने मुकुट-मणि के कान्तिपुंज से आपके पाद-कमलों की पूजा करते हैं, (उनके शीष आपके चरणो में झुकाकर आपको नमस्कार करते हैं), इसलिये आपको मेरा भी नमस्कार हो।

ध्यान-द्रुघण-निर्भिन्न-घन-घाति-महातरुः।
अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीदनन्तजित् ॥४॥
अन्वयार्थ : आपने अपने ध्यानरूपी कुठार (कुल्हाड़ी) से बहुत कठोर घातिया कर्मरूपी बडे वृक्ष को काट डाला है तथा अनन्त जन्म-मरणरूप संसार की संतान परंपरा को जीत लिया है इसलिये आप अनन्तजित कहलाते हैं।

त्रैलोक्य-निर्जयाव्याप्त-दुर्दर्पमतिदुर्जयम्।
मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन! मृत्युंजयो भवान् ॥५॥
अन्वयार्थ : हे जिन! तीनों लोकों का जेता होने का जिसे अत्यंत गर्व हुआ है, तथा जो अन्य किसी से भी जीता नहीं जा सकता ऐसे मृत्यु को भी आपने जीत लिया है इसलिए आप ही मृत्युंजय कहलाते हैं।

विधूताशेष – संसार – बन्धनो भव्यबान्धव:।
त्रिपुराऽरि स्त्वमेवासि जन्म मृत्यु-जरान्तकृत् ॥६॥
अन्वयार्थ : संसार के समस्त बंधनों का नाश करनेवाले आप, भव्य जीवों के बन्धू हैं । जन्म, मृत्यु और वार्धक्य रूपी तीनों अवस्थाओं का नाश करनेवाले भी आप ही हैं, अर्थात् आप ही त्रिपुरारि हैं।

त्रिकाल-विषयाऽशेष तत्त्वभेदात् त्रिधोत्थितम्।
केवलाख्यं दधच्चक्षु स्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशित: ॥७॥
अन्वयार्थ : हे अधीश्वर, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों के समस्त तत्त्वों एवम् उनके तीनों भेदों को जानने योग्य केवलज्ञान रूप नेत्र आप धारण करते हैं, इसलिये आप ही त्रिनेत्र हैं।

त्वामन्धकान्तकं प्राहुर्मोहान्धाऽसुर-मर्दनात् ।
अर्ध्दं ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यत: ॥८॥
अन्वयार्थ : आपने मोहरुपी अन्धासुर का नाश किया है, इसलिए आप अन्धकान्तक कहलाते हैं, आपने आठ में से चार शत्रू (अर्ध न अरि) का नाश किया है, इसलिये आपको अर्धनारीश्वर भी कहते हैं।

शिव: शिवपदाध्यासाद् दुरिताऽरि हरो हर:।
शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्वं भवन्सुखे ॥९॥
अन्वयार्थ : आप शिवपद अर्थात मोक्ष-निवासी हैं इसलिये शिव कहे गये, पापों को हरने वाले है, इसलिये हर है, जगत का दाह शमनेवाले है इसलिए शंकर है और सुख उत्पन्न है, इसलिए शंभव कहे गये है।

वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरुगुणोदयै।
नाभेयो नाभि सम्भूतेरिक्ष्वाकु-कुल्-नन्दन: ॥१०॥
अन्वयार्थ : आप जगत में ज्येष्ठ है, इसलिए आप वृषभ है, आप संपुर्ण गुणों कि खान होने से पुरु है, नाभिपुत्र होने से नाभेय, नाभि के काल मे होनेसे नाभिसमभूत, और इक्ष्वाकू कुल मे जन्म लेने कि वजह से आपको इक्ष्वाकू कुल-नन्दन भी कहे जाते हैं।

त्वमेक: पुरुषस्कंध स्त्वं द्वे लोकस्य लोचने।
त्वं त्रिधा बुध्द-सन्मार्ग स्त्रिज्ञ स्त्रिज्ञानधारक: ॥११॥
अन्वयार्थ : सब पुरुषों में आप ही एक श्रेष्ठ है, लोगों के दो नेत्र होने के कारण आप के दो रूप धारक है, तथा मोक्ष के तीन मार्ग के एकत्व को आपने जाना है, आप तीन काल एक साथ देख सकते है और रत्नत्रय धारक है, इसलिये आप त्रिज्ञ भी कहलाते हैं।

चतु:शरण मांगल्य-मूर्तिस्त्वं चतुरस्रधी।
पंचब्रह्ममयो देव पावनस्त्वं पुनीहि माम् ॥१२॥
अन्वयार्थ : इस जगत् मे आप ही चार मांगल्यों का एकरुप हैं और आप चारों दिशाओं के समस्त पदार्थों को एकसाथ जानते है, इसलिए आप चतुरस्रधी कहलाते है । आप ही पंच-परमेष्ठी स्वरुप हैं, पावन करनेवाले है, मुझे भी पवित्र किजिए ।

स्वर्गाऽवतारिणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम:।
जन्माभिषेक वामाय वामदेव नमोऽस्तुते ॥१३॥
अन्वयार्थ : आप स्वर्गावतरण के समय ही सद्योजात (उसी समय उत्पन्न) कहलाये थे और जन्माभिषेक के समय आप बहुत ही सुंदर दिख रहे थे, इसलिये हे वामदेव आपको नमस्कार हो ।

सन्निष्कान्ता वघोराय, पदं परममीयुषे।
केवलज्ञान-संसिध्दा वीशानाय नमोऽस्तुते ॥१४॥
अन्वयार्थ : दीक्षा-समय मे आपने परम शान्त-मुद्रा धारण कि थी, तथा केवलज्ञान के समय आप परमपद धारी होकर ईश्वर कहलाए, इसलिये आपको नमस्कार हो।

पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्त पदभाजिने।
नमस्तत्पुरुषाऽवस्थां भाविनीं तेऽद्य विभ्रते ॥१५॥
अन्वयार्थ : अब आगे शुद्ध आत्म-स्वरुप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होंगे, तथा सिद्ध-अवस्था धारण करनेवाले हैं, इसलिये हे विभो मेरा आपको नमस्कार है।

ज्ञानावरण-निर्हासा न्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे।
दर्शानावरणोच्छेदा न्नमस्ते विश्वदृश्वने ॥१६॥
अन्वयार्थ : ज्ञानावरण कर्म का नाश करने से आप अनन्तज्ञानी कहलाते है और दर्शनावरण कर्म के नाशक आप विश्वदृश्वा (समस्त विश्व एक साथ देखने वाले) कहलाते है, इसलिए हे देव मेरा आपको नमस्कार है ।

नमो दर्शनमोहघ्ने क्षायिकाऽमलदृष्टये।
नम श्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे ॥१७॥
अन्वयार्थ : आप दर्शन-मोहनीय कर्म का नाश करने से निर्मल क्षायिक सम्यग्दर्शन के धारक हैं, चारित्र-मोहनीय कर्म का नाश करने से आप वीतराग एवम् तेजस्वी हैं, इसलिए हे प्रभु मेरा आपको नमस्कार है ।

नमस्तेऽनन्तवीर्याय नमोऽनन्त सुखत्मने।
नमस्ते अनन्तलोकाय लोकालोकवलोकिने॥१८॥
अन्वयार्थ : आप अनन्त-वीर्यधारी, अनन्त-सुख में लीन तथा लोकालोक को देखने वाले हो, इसलिए हे अनन्त-प्रकाशरूप मेरा आपको नमस्कार है।

नमस्तेऽनन्तदानाय नमस्तेऽनन्तलब्धये ।
नमस्तेऽनन्तभोगाय नमोऽनन्तोप भोगिने ॥१९॥
अन्वयार्थ : आपके दानांतराय-कर्म का नाश हुआ है और अनन्त लब्धियों के धारक है, आपका लाभ, भोग तथा उपभोग के अंतराय कर्म का भी नाश हुआ है इसलिए हे विभो आप अनन्त भोग तथा उपभोग को प्राप्त हैं, मेरा आपको नमस्कार है।

नम: परमयोगाय नम्स्तुभ्य मयोनये।
नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये ॥२०॥
अन्वयार्थ : हे परम देव ! आप परम-ध्यानी हैं, आप ८४ लक्ष योनी से रहित है, आप परम-पवित्र हैं, आप परम ऋषी हैं, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।

नम: परमविद्याय नम: परमतच्छिदे।
नम: परम तत्त्वाय नमस्ते परमात्मने ॥२१॥
अन्वयार्थ : आप केवलज्ञानधारी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप सब पर-मतों का नाश करनेवाले हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो । आप परम-तत्त्वस्वरूप (रत्नत्रय-रूप) हैं तथा आप ही परम आत्मा हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।

नम: परमरूपाय नम: परमतेजसे ।
नम: परम मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ॥२२॥
अन्वयार्थ : आप अति सुंदर रुप धारी परम तेजस्वी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग-स्वरूप हैं तथा आप सर्वोच्च-स्थान में रहनेवाले परमेष्ठी हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।

परमर्धिजुषे धाम्ने परम ज्योतिषे नम:।
नम: पारेतम: प्राप्त धाम्ने परतरात्मने ॥२३॥
अन्वयार्थ : आप मोक्षस्थान को सेवन करनेवाले हैं, तथा ज्योति-स्वरुप हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो । आप अज्ञानरुपी तमांधकार के पार अर्थात परमज्ञानी प्रकाशरुप हैं तथा आप सर्वोत्कृष्ट हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।

नम: क्षीण कलंकाय क्षीणबन्ध! नमोऽस्तुते।
नमस्ते क्षीण मोहाय क्षीणदोषाय ते नम:॥२४॥
अन्वयार्थ : आप कर्म-रुपी कलंक से रहित है, आप कर्मों के बन्धन से रहित है, आपके मोहनीय-कर्म नष्ट हुए हैं तथा आप सब दोषों से रहित हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।

नम: सुगतये तुभ्यं शोभना गतिमियुषे।
नमस्तेऽतीन्द्रिय ज्ञान् सुखायाऽनिन्द्रियात्मने ॥२५॥
अन्वयार्थ : आप मोक्षगति को प्राप्त हैं, इसलिए आप सुगति है, आप इन्द्रियों से ना जाने जानेवाले ज्ञान-सुख के धारी है तथा स्वयं भी अतिन्द्रिय अगोचर हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।

काय बन्धन निर्मोक्षादकाय नमोऽस्तु ते ।
नमस्तुभ्य मयोगाय योगिना मधियोगिने ॥२६॥
अन्वयार्थ : शरीर बन्धन नाम-कर्म को नष्ट करने के कारण आप शरीर-रहित कहलाते है, आप मन-वच-काय योग से रहित हैं और आप योगियों में भी सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए हे विभो ! आपको मेरा नमस्कार हो।

अवेदाय नमस्तुभ्यम कषायाय ते नम:।
नम: परमयोगीन्द्र वन्दिताङिंघ्रद्वयाय ते ॥२७॥
अन्वयार्थ : तीनो वेदों का नाश आपने दसवें गुणस्थान मे ही किया है, इसलिए आप अवेद कहलाते हैं, आपने कषायों का भी नाश किया इसलिए आप अकषाय कहलाते हैं, परम योगीराज भी आपके दोनों चरणकमलों को नमन करते हैं, इसलिए हे प्रभो! मेरा भी आपको नमस्कार हो।

नम: परम विज्ञान! नम: परम संयम!।
नम: परमदृग्दृष्ट परमार्थाय ते नम: ॥२८॥
अन्वयार्थ : हे परम विज्ञान प्रभू! हे उत्कष्ट ज्ञान धारी, हे परम संयमधारी आप परम दृष्टी से परमार्थ को देखते है तथा जगत् की रक्षा करनेवाले हैं, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।

नम्स्तुभ्य मलेश्याय शुक्ललेश्यां शकस्पृशे।
नमो भव्येतराऽवस्था व्यतीताय विमोक्षिणे ॥२९॥
अन्वयार्थ : हे परम देव! आप लेश्याओं से रहित हैं, तथा शुद्ध परमशुक्ल लेश्या के कुछ उत्तम अंश को स्पर्श करनेवाले हैं, आप भव्य-अभव्य दोनों अवस्थाओं से रहित हैं और मुक्तरूप हैं, इसलिए मेरा आपको नमस्कार है।

संज्ञय संज्ञि द्वयावस्था व्यतिरिक्ताऽमलात्मने।
नमस्ते वीत संज्ञाय नम: क्षायिकदॄष्टये ॥३०॥
अन्वयार्थ : आप संज्ञी भी नही हैं, असंज्ञी भी नही हैं, आप निर्मल शुद्धात्मा धारी है, आप आहार, भय, निद्रा तथा मैथुन इन् चारों संज्ञाओं से रहित है और आप क्षायिक सम्यग्दृष्टी भी है, इसलिए हे करुणानिधान ! मेरा आपको नमस्कार हो।

अनाहाराय तृप्टाय नम: परमभाजुषे।
व्यतीताऽ शेषदोषाय भवाब्धे पारमीयुषे ॥३१॥
अन्वयार्थ : आप आहार ना लेते हुए भी सदैव तृप्त रहते है, अतिशय कांतियुक्त हैं, समस्त दोषों से मुक्त हैं, तथा संसाररूपी समुद्र के पार हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।

अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने।
अमृत्यवे नमस्तुभम चलायाऽक्षरात्मने ॥३२॥
अन्वयार्थ : आप जन्म, बुढापा, मृत्यु से रहित हैं, अचल हैं, अक्षरात्मा हैं इसलिये हे तारक, मेरा आपको नमस्कार हो।

अलमास्तां गुणस्तोत्रम नन्तास्तावका गुणा।
त्वां नामस्मृति मात्रेण पर्युपासि सिषामहे ॥३३॥
अन्वयार्थ : हे त्रिलोकिनाथ ! आपके अनंतगुण हैं (आपके सब गुणों का वर्णन असंभव है), इसलिये केवल आपके नामों का ही स्मरण करके आपकी उपासना करना चाहते हैं।

एवं स्तुत्वा जिनं देव भक्त्या परमया सुधी:।
पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पापशान्तये ॥३४॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार जिनेन्द्र देव की उत्कृष्ट भक्ति करके सुधीजन आगे आये हुए एक सहस्र ( १००८) नामों को निरंतर पढ़ें ।

प्रथम-अध्याय

प्रसिद्धाऽष्ट सहस्रेद्ध लक्षणं त्वां गिरांपतिम् ।
नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ॥१॥

श्रीमान् स्वयम्भूर्वृषभ: शम्भव: शम्भूरात्मभू:।
स्वयंप्रभ: प्रभु र्भोक्ता विश्वभूर पुनर्भव: ॥२॥

विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षर:।
विश्वविद् विश्वविद्येशो विश्व योनिरनश्वर ॥३॥

विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचन:।
विश्वव्यापी विधिर्वेधा शाश्वतो विश्वतोमुख: ॥४

विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमुर्ति र्जिनेश्वर:।
विश्वदृग् विश्व भूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वर: ॥५॥

जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति:।
अनंतजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरऽबन्धन: ॥६॥

युगादिपुरुषो ब्रह्मा पंचब्रह्ममय: शिव:।
पर: परतर: सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातन: ॥७॥

स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्म योनिरऽयोनिज ।
मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वज: ॥८॥

प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वराऽर्चित: ।
ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वर: ॥९॥

शुद्धो बुद्ध: प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थ: सिद्धशासन:।
सिद्ध: सिद्धान्तविद्ध्येय: सिद्धसाध्यो जगद्धित:॥१०॥

सहिष्णुरच्युतोऽनन्त: प्रभविष्णुर्भवोद्भव: ।
प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्यय: ॥११

विभावसुरसम्भूष्णु: स्वयंभूष्णु: पुरातन: ।
परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वर: ॥१२॥

द्वितीय-अध्याय

दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन:।
पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर ॥१॥

श्रीपतिर्भगवान अर्हन्नरजा विरजा: शुचि:।
तीर्थकृत् केवलीशान: पूजार्हस्नातकोऽमल: ॥२॥

अनंतदिप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुद्ध: प्रजापति:।
मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर:॥३॥

निरंञ्जनो जगज्ज्योति-र्निरुक्तोक्तिर्निरामय:।
अचल स्थिति रक्षोभ्य: कूटस्थ स्थाणु रक्षय: ॥४॥

अग्रणी ग्रामणीर्नेता प्रणेता न्याय शास्त्रकृत्।
शास्ता धर्मपति-र्धर्म्यो धर्मात्मा धर्म तीर्थकृत्॥५॥

वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुध:।
वृषो वृषपतिर्भर्ता वृषभांको वृषोद्भव:॥६॥

हिरण्यनाभिर्भूतात्मा भूतभृद्भूतभावन:।
प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक:॥७॥

हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूत विभवोद्भव:।
स्वयंप्रभु प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभु:॥८॥

सर्वादि: सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन:।
सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित् सर्व लोकजित् ॥९॥

सुगति: सुश्रुत: सुश्रुत सुवाक सुरिर्बहुश्रुत:।
विश्रुतो विश्वत: पादो विश्वशिर्ष: शुचिश्रवा: ॥१०॥

सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात् ।
भूतभव्य भवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वर: ॥११॥

॥इति दिव्यादिशतम्॥

तृतीय-अध्याय

स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: पृष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधी:।
स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: श्रेष्ठोऽ णिष्ठो गरिष्ठगी: ॥१॥

विश्वभृद् विश्वसृड् विश्वेड् विश्वभृग् विश्वनायक:।
विश्वाशीर्विश्वरुपात्मा विश्वजित् विजितान्तक: ॥२॥

विभावो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन् ।
विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सर: ॥३॥

विनेय जनता बंधु र्विलीना शेष कल्मष:।
वियोगो योगविद् विद्वान् विधाता सुविधि सुधी: ॥४॥

क्षान्ति भाक़् पृथ्वीमूर्ति: शान्ति भाक् सलिलात्मक:।
वायुमूर्ति रसंगात्मा वन्हि मूर्ति धर्मधृक् ॥५॥

सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सूत्राम पूजित:।
ऋत्विग्यज्ञ पति र्यज्ञो यज्ञांगम मृतं हवि: ॥६॥

व्योम मुर्ति मूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोचल:।
सोममूर्ति: सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्ति र्महाप्रभ: ॥७॥

मन्त्रविन् मन्त्रकृन् मन्त्री मन्त्रमूर्ति रनन्तग:।
स्वतन्त्र स्तन्त्र कृत्स्वन्त: कृतान्तान्त: कृतान्त कृत् ॥८॥

कृती कृतार्थ: सत्कृत्य: कृतकृत्य: कृतक्रतु:।
नित्यो मृत्युञ्जयो मृत्युर मृतात्माऽमृतोद्भव: ॥९॥

ब्रह्मनिष्ठ परंब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसंभव:।
महाब्रह्म पतिर्ब्रह्मेड् महाब्रह्म पदेश्वर ॥१०॥

सुप्रसन्न: प्रसनात्मा ज्ञानधर्म दमप्रभु।
प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराण पुरुषोत्तम: ॥११॥
इति स्थविष्ठादिशतम्

चतुर्थ-अध्याय

महाऽशोक ध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्मविष्टर:।
पद्मेश पद्मसम्भूति: पद्मनाभि रनुत्तर: ॥१॥

पद्मयोनि र्जगद्यो निरित्य: स्तुत्य: स्तुतिश्वर:।
स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेय कृतक्रिय: ॥२॥

गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी:।
गुणाकारो गुणाम्बोधि र्गुणज्ञो गुणनायक: ॥३॥

गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण पुण्यगीर्गुण:।
शरण्य: पुण्यवाक्पूतो वरेण्य: पुण्यनायक: ॥४॥

अगण्य: पुण्यधीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्यशासन:।
धर्मारामो गुणग्राम: पुण्यापुण्य निरोधक: ॥५॥

पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मष:।
निर्द्वंद्वो निर्मद]] शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव: ॥६॥

निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव:।
निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतांगो निरास्रव: ॥७॥

विशालो विपुल ज्योतिरतिलोऽ चिन्त्यवैभव:।
सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभूत् सुनय तत्त्ववित् ॥८॥

एकविद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति:।
धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक:॥९॥

पिता पितामह पाता पवित्र: पावनो गति:।
त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान् ॥ १०॥

कवि: पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभ: पुरु: ।
प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामह: ॥११॥
इति महाऽशोकाऽदिध्वजम् !!

पंचम-अध्याय

श्रीवृक्षलक्षण श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण:।
निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण: ॥१॥

सिद्धिद: सिद्धसंकल्प: सिद्धात्मा सिद्धसाधन:।
बुद्धबोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महर्द्धिक: ॥२॥

वेदांगो वेदविद् वेद्यो जातरूपो विदांवर:।
वेदवेद्य: स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवर: ॥३॥

अनादि निधनोऽ व्यक्तो व्यक्तवाग़ व्यक्तशासन:।
युगादिकृद्युगाधारो युगादिर्जगदादिज: ॥४॥

अतीन्द्रोऽतिन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतिन्द्रियार्थ दृक्।
अनिन्द्रियो अहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्र महितो महान् ॥५॥

उद्भव: कारणं कर्ता पारगो भक्तारक:।
अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्घ्य: परमेश्वर: ॥६॥

अनन्तर्द्धि मेयर्द्धिरचिन्त्यर्द्धि समग्रधी:।
प्राग्रय: प्राग्रहरोऽभ्यग्र: प्रत्यग्रयोऽग्रिमोग्रज॥७॥

महातपा महातेजा महोदर्को महोदय:।
महायशा महाधामा महासत्वो महाधृति: ॥८॥

महाधैर्यो महावीर्यो महासंपन् महाबल:।
महाशक्ति र्महाज्योति र्महाभूति र्महाद्युति:॥९॥

महामति-र्महानिति-र्महाक्षान्ति-र्महोदय:।
महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकवि: ॥१०॥

महामहा महाकिर्ति र्महाकान्ति र्महावपु:।
महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुण:॥११॥

महा महपति: प्राप्त महाकल्याण पञ्चक:।
महाप्रभू र्महा प्रातिहार्योर्धीशो महेश्वर ॥१२॥

इति श्रीवृक्षादिशतम्।

षष्ठम-अध्याय

महामुनि र्महामौनी महाध्यानी महादम:।
महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामख:॥१॥

महाव्रत पतिर्मह्यो महाकान्ति धरोऽधिप:।
महामैत्री महामेयो महोपायो महोमय:॥२॥

महाकारुणिको मन्ता महामन्त्रो महायति:।
महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपति: ॥३॥

महाध्वरधरो धुर्य्यो महौदार्यो महिष्ठवाक्।
महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदय:॥४॥

महाक्लेशांकुश: शूरो महाभूतपतिर्गुरु:।
महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधारिपुवशी ॥५॥

महाभवाब्दि संतारी र्महामोहाऽद्रि सूदन:।
महागुणाकर: क्षान्तो महायोगीश्वर: शमी॥६॥

महाध्यानपति र्ध्यात महाधर्मा महाव्रत:।
महाकर्मारि हाऽऽत्मज्ञो महादेवो महेशिता॥७॥

सर्वक्लेशापह: साधु: सर्वदोषहरो हर:।
असंख्येयोऽ प्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकर:॥८॥

सर्वयोगी श्वरोऽ चिन्त्य: श्रुतात्मा विष्टरश्रवा:।
दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वग:॥९॥

प्रधानमात्मा प्रकृति: परम: परमोदय:।
प्रक्षीणबन्ध: कामारि: क्षेमकृत् क्षेमशासन:॥१०॥

प्रणव: प्रणय: प्राण: प्राणद: प्रणतेश्वर:।
प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोऽध्वर्युरध्वर:॥११॥

आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽ निन्द्योऽ भिनन्दन:।
कामहा कामद: काम्य: कामधेनुररिञ्जय:॥१२॥

इति महामुन्यादिशतम्।

सप्तम-अध्याय
असंस्कृत सुसंस्कार: अप्राकृतो वैकृतान्तकृत्।
अन्तकृत् कान्तगु: कान्तश्चिन्तामणिर भीष्टद: ॥१॥

अजितो जितकामारि रमितोऽ मितशासन:।
जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक:॥२॥

जिनेन्द्र परमानंदो मुनिन्द्रो दुन्दुभिस्वन:।
महेन्द्र वन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन:॥३॥

नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम:।
अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वान धिकोऽधिगुरु: सुगी:॥४॥

सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक:।
विशिष्ट शिष्टभुक शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ:॥५॥

क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्य: क्षेमधर्मपति: क्षमी।
अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तर॥६॥

सुकृती धातुरिज्यार्ह: सुनय श्चतुरानन:।
श्रीनिवास श्चतुर्वक्त्र श्चतुरास्य श्चतुर्मुख:॥७॥

सत्यात्मा सत्यविज्ञान: सत्यवाक्सत्यशासन:।
सत्याशी सत्यसन्धान: सत्य: सत्यपरायण:॥८॥

स्थेयान् स्थवीयान्नेदीयान् दवीयान् दूरदर्शन:।
अणोरणियान अनणु र्गुरुराद्यो गरीयसाम् ॥९॥

सदायोग: सदाभोग: सदातृप्त: सदाशिव:।
सदागति: सदासौख्य: सदाविद्य: सदोदय:॥१०॥

सुघोष: सुमुख: सौम्य: सुखद: सुहित: सुह्रुत:।
सुगुप्तो गुप्तिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वर:॥११॥
इति असंस्कृतादिशतम् ।

अष्ठम अध्याय

बृहन् बृहस्पती र्वाग्मी वाचस्पती रुदारधी:।
मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशो गिरांपति: ॥१॥

नैकरुपो नयोत्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत्।
अविज्ञेयोऽ प्रतर्क्यात्मा कृतज्ञ: कृतलक्षण: ॥२॥

ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ: प्रभास्वर:।
पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भ: सुदर्शन: ॥३॥

लक्ष्मीवान्स्त्री दशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता।
मनोहारो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासन: ॥४॥

धर्मयुपो दयायागो धर्मनेमी र्मुनीश्वर:।
धर्मचक्रायुधो देव: कर्महा धर्मघोषण: ॥५॥

अमोघवाग मोघाज्ञो निर्मलोऽ मोघशासन:।
सुरुप: सुभगस्त्यागी समयज्ञ समाहित: ॥६॥

सुस्थित स्वास्थ्यभाक् स्वस्थो निरजस्को निरुद्धव:।
अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृह: ॥७॥

वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा नि:सपत्नो जितेन्द्रिय:।
प्रशान्तोऽ नन्तधामर्षि र्मंगलं मलहानघ: ॥८॥

अनीदृगुपमाभूतो दिष्टिर्देव मगोचर:।
अमूर्तो मुर्तिमानेको नैको नानैक तत्त्वदृक्॥९॥

अध्यात्म गम्योऽ गम्यात्मा योगविद्योगि वन्दित:।
सर्वत्रग: सदाभावी त्रिकाल विषयार्थदृक्॥१०॥

शंकर: शंवदो दान्तो दमी क्षान्तिपरायण:।
अधिप: परमानन्द: परात्मज्ञ: परात्पर: ॥११॥

त्रिजगद्वल्लभोऽभ्यर्च्य स्त्रिजगन्मंगलोदय्:।
त्रिजगत्पतिप्पुज्याङिघ्र स्त्रिलोकाग्र शिखामणि:॥१२॥
इति बृहदादिशतम्।

नवम-अध्याय

त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढव्रत:।
सर्वलोकातिग: पूज्य: सर्वलोकैक सारधि:॥१॥

पुराण: पुरुष: पुर्व: कृतपुर्वागविस्तर:।
आदिदेव: पुराणाद्य :पुरुदेवोऽधिदेवता॥२॥

युगमुख्यो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशक:।
कल्याणवर्ण: कल्याण: कल्य: कल्याणलक्षण:॥३॥

कल्याणप्रकृति र्दीप्तकल्याणात्मा विकल्मष:।
विकलंक: कलातीत: कलिलघ्न: कलाधर:॥४॥

देवदेवो जगन्नाथो जगद्बन्धु र्जगद्विभु:।
जगद्धितैषी लोकज्ञ: सर्वगो जगदग्रज:॥५॥

चराचरगुरु र्गोप्यो गूढात्मा गूढगोचर:।
सद्योजात: प्रकाशात्मा ज्वल ज्वलनसप्रभ:॥६॥

आदित्यवर्णो भर्माभ: सुप्रभ: कनकप्रभ:।
सुवर्णवर्णो रुक्माभ सूर्यकोटिसमप्रभ:॥७॥

तपनीयनिभ स्तुंगो बालार्काभोऽ नलप्रभ:।
सन्ध्याभ्रबभ्रुर्हेमाभ स्तप्त चामिकरच्छवि:॥८॥

निष्टप्त कनकच्छाय: कनत्कांचन संनिभ:।
हिरण्यवर्ण: स्वर्णाभ: शातकुम्भ निभप्रभ:॥९॥

द्युम्नाभो जातरुपाभ स्तप्तजाम्बुदद्युति:।
सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्युति:॥१०॥

शिष्टेष्ट: पुष्टिद: पुष्ट: स्पष्ट: स्पष्टाक्षर: क्षम:।
शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघ: प्रशास्ता शासिता प्रभू:॥११॥

शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रद:।
शान्तिद: शान्ति कृच्छान्ति: कान्तिमान् कामितप्रद:॥१२॥

श्रेयोनिधी रधिष्ठान मप्रतिष्ठ: प्रतिष्ठीत:।
सुस्थिर: स्थावर: स्थाणु: प्रथीयान्प्रथित: पृथु:॥१३॥

इति त्रिकालदर्श्यादिशतम्।

दशम्-अध्याय

दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बर:।
निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुर मोमुह: ॥१॥

तेजोराशी रनंतौजा ज्ञानाब्धि: शीलसागर:।
तेजोमयोऽमितज्योति ज्योतिर्मूर्ति स्तमोपह:॥२॥

जगच्चूडामणि र्दीप्त: शंवान विघ्नविनायक:।
कलिघ्न कर्मशत्रुघ्नो लोकालोक प्रकाशक:॥३॥

अनिद्रालुरतन्द्रालु-र्जागरूक: प्रभामय:।
लक्ष्मीपति-र्जगज्ज्योति-र्धर्मराज: प्रजाहित:॥४॥

मुमुक्षुर्बन्ध मोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथ:।
प्रशान्तरसशैलुषो भव्यपेटकनायक:॥५॥

मूलकर्ताऽखिलज्योति-र्मलघ्नो मूलकारण:।
आप्तो वागीश्वर: श्रेयान श्रायसुक्ति-र्निरुक्तिवाक्॥६॥

प्रवक्ता वचसामीशो मारजित् विश्वभाववित्।
सुतनु स्तनुनिर्मुक्त: सुगतो हतदुर्नय:॥७॥

श्रीश:श्रीश्रितपादाब्जो वीतभी रभयंकर:।
उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सल:॥८॥

लोकोत्तरो लोकपति र्लोकचक्षुर पारधी:।
धीरधी र्बुद्धसन्मार्ग शुद्ध: सुनृत-पूतवाक्॥९॥

प्रज्ञा-पारमित: प्राज्ञो यति र्नियमितेन्द्रिय:।
भदन्तो भद्रकृत् भद्र कल्पवृक्षो वरप्रद:॥१०॥

समुन्मूलीत-कर्मारि: कर्मकाष्ठाऽऽशुशुक्षणि:।
कर्मण्य कर्मठ: प्रान्शु र्हेयादेय-विचक्षण:॥११॥

अनन्तशक्ति रच्छेद्य स्त्रिपुरारि स्त्रिलोचन:।
त्रिनेत्र स्त्र्यम्बक स्त्र्यक्ष केवलज्ञान-वीक्षण:॥१२॥

समन्तभद्र शान्तारि र्धमाचार्यो दयानिधी:।
सूक्ष्मदर्शी जितानंग कृपालू धर्मदेशक:॥१३॥

शुभंयु सुखसाद्भूत: पुण्यराशी रनामय:।
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक:॥१४॥

स्तुति

धाम्नापते तवामुनि नामान्यागम कोविदै:।
समुच्चिता-न्यनुध्यायन् पुमान् पूतस्मृति-र्भवेत्॥१॥

गोचरोऽपि गिरामासां त्वम वाग्गोचरो मत:।
स्तोता तथ्याप्य संदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत् ॥२॥

त्वमतोऽसि जगद्बंधू स्त्वमतोऽसि जगद्भिषक।
त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धित:॥३॥

त्वमेकं जगतां ज्योति स्त्वं द्विरुपोपयोग भाक्।
त्वं त्रिरुपैक मुक्त्यंग: स्वोत्थानन्त चतुष्टय:॥४॥

त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायक:।
षड् भेदभाव तत्त्वज्ञ स्त्वं सप्तनयसंग्रह: ॥५॥

दिव्याष्ट गुण मूर्तिस्त्वं नवकेवल लब्धिक:।
दशावतार निर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर: ॥६॥

युष्मन्नामावली दृब्ध विलसत्स्तोत्र मालया।
भवन्तं वरिवस्याम: प्रसीदानु गृहाण न:॥७॥

इदं स्तोत्र मनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिक:।
य: संपाठ्य पठत्येनं स स्यात्कल्याण भाजनम् ॥८॥

तत: सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधी:।
पौरुहुतिं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुक: ॥९॥

स्तुत्वेति मघवा देवं चराचर जगद्गुरुम्।
ततस्तीर्थ विहारस्य व्यधात्प्रस्तावना मिमाम्॥१०॥

स्तुति: पुण्यगुणोत्किर्ति: स्तोता भव्य प्रसन्नधी:।
निष्ठितार्थो भवांस्तुत्य: फलं नैश्रेयसं सुखम् ॥११॥

य: स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुन: स्तोता स्वयं कस्यचित्।
ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वयं कस्यचित् ॥
यो नेन्तृन् नयते नमस्कृतिमलम् नन्तव्यपक्षेक्षण:।
स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देव: पुरु पावन: ॥१२॥

तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं घातिक्षयानन्तरं।
प्रोत्थानन्तच्तुष्टयं जिनमिमं भव्याब्जिनीनामिनम्॥
मानस्तम्भविलोकनानत्तजगन्मान्यं त्रीलोकीपतिं।
प्राप्ताचिन्त्यबहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवन्दामहे॥१३॥

शुभंयु सुखसाद्भूत: पुण्यराशी रनामय:।
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक:॥१४॥

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Note

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