Samuchchay Puja

दव्वे खेत्ते काले भावे य कयावराहसोहणयं।
जिंदणगरहणजुत्तो मणवककायेण पडिक्कमणं।।
गाथार्थ – निन्दा और गहपूर्वक मन-वचन-काय के द्वारा द्रव्य, – क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किए गए अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है।

जीवे प्रमाद – जनिताः प्रचुराः प्रदोषाः,
यस्मात्प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयान्ति।
तस्मात्तदर्थ – ममलं गृहि – बोधनार्थं,
वक्ष्ये विचित्र – भव- कर्म- विशोधनार्थम् ।।

अर्थ – जिस प्रतिक्रमण से, जीव के द्वारा प्रमाद से उत्पन्न होने वाले अनेक दोष क्षय को प्राप्त होते हैं, तथा अनेक भवों में उपार्जित कर्मों का क्षणमात्र में नाश होता है। इसलिए गृहस्थों की ज्ञान कराने के लिए मैं ऐसे निर्मल प्रतिक्रमण को कहूँगा ।

                 हे जिनेन्द्र ! हे देवाधिदेव ! हे वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरिहन्त प्रभु। मैं पापों के प्रक्षालन के लिए, पापों से मुक्त होने के लिए, आत्म उत्थान के लिए, आत्म जागरण के लिए प्रतिक्रमण करता हूँ। (इस प्रकार प्रतिज्ञा करके एक आसन से बैठकर प्रतिक्रमण प्रारंभ करें।)

पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना,
रागद्वेष- मलीमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निर्मितं।
त्रैलोक्याधिपते! जिनेन्द्र! भवतः श्रीपादमूलेऽधुना,
निन्दापूर्वमहं जहामि सततं वर्वर्तिषुः सत्पथे।।

    पापी, दुरात्मा, जड़बुद्धि, मायावी, लोभी और राग-द्वेष से मलिन चित्तवाले मैंने जो दुष्कर्म किया है, उसे हे तीन लोक के अधिपति। हे जिनेन्द्र देव । निरन्तर समीचीन मार्ग पर चलने की इच्छा करने वाला मैं आज आपके पादमूल में निन्दापूर्वक उसका त्याग करता हूँ।

हाय मैंने शरीर से दुष्टकार्य किया है, हाय मैंने मन से दुष्ट विचार किया है, हाय मैंने मुख से दुष्ट वचन बोला है। उसके लिए मैं पश्चाताप करता हुआ भीतर ही भीतर जल रहा हूँ।

निन्दा और गर्हा से युक्त होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावपूर्वक किये गये अपराधों की शुद्धि के लिए मैं मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण करता हूँ ।

समस्त संसारी जीवों की सर्व योनियाँ (जातियाँ) चौरासी लाख हैं एवं सर्व संसारी जीवों के सर्व कुल एक सौ साढ़े निन्यानवे (१९९-१/२)
लाख करोड़ होते हैं, इनमें उपस्थित जीवों की विराधना की हो एवं इनके प्रति होने वाले राग द्वेष से जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं (तत्सम्बन्धी मेरा दृष्कृत मिथ्याहो)

जो एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय तथा पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीव हैं, इनका जो उत्तापन, परितापन, विराधन और उपघात किया हो, कराया हो और करने वाले की अनुमोदना की हो तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

सूक्ष्म, बादर-पर्याप्तक, निर्वृत्त्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में से किसी भी जीव की विराधना की हो तस्स मिच्छा में दुक्कडं । एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान इन पांच प्रकार के मिथ्यामार्ग और उनके सेवकों की मन-वचन से प्रशंसा की हो तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

जिनदर्शन, जलगालन, रात्रिभोजनत्याग, पाँच उदुम्बर त्याग, मद्य त्याग, मांस त्याग, मधुत्याग और जीवदया पालन इन आठ श्रावक के मूलगुणों में अतिचार के द्वारा जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे भगवान ! मूलगुणों के अंतर्गत जिनदर्शन व्रत पालन में प्रमाद किया हो, अविनय से दर्शन किया हो तथा दर्शन या पूजन करते समय मन, वचन, काय की शुद्धि नहीं रखी हो, जिनदर्शन व्रत पालन करते हुये जिनमार्ग में शंका की हो, शुभाचरण पालन कर संसार सुख की वांछा की हो, धर्मात्माओं के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि की हो, मिथ्यामार्ग और उसके सेवन करने वालों की मन से प्रशंसा की हो तथा मिथ्यामार्ग की वचन से स्तुति की हो, इत्यादि अतिचार अनाचार दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं । हे नाथ ! मूलगुणों के अंतर्गत जलगालन व्रत पालन में प्रमाद किया हो, जल छानने के ४८ मिनट बाद उसे फिर नहीं छानकर उसी का उपयोग किया हो, प्रमाण से छोटे, इकहरे, मलिन जीर्ण एवं सछिद्र वस्त्र से जल छाना हो। गर्म पानी की मर्यादा समाप्त हो जाने पर उसका उपयोग किया हो, छानने से शेष बचे जल को और जीवानी को यथास्थान (कड़े वाली बाल्टी से कुओं में ) न पहुँचाया हो उसे नाली आदि में डाल दिया हो, तथा जीवानी की सुरक्षा में या पानी छानने की विधि में प्रमाद किया हो इत्यादि अनाचार मुझे लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे देवाधिदेव ! मूलगुणों के अंतर्गत रात्रि भोजन त्याग व्रत में रात्रि में बने भोजन का, सूर्योदय से ४८ मिनट के भीतर या सूर्यास्त के एक मुहूर्त पूर्व तथा औषधि के निमित्त रात्रि को रस, फल आदिका सेवन किया हो, कराया हो या करते हुए अनुमोदना की हो, तज्जन्य अन्य भी अतिचार-अनाचार दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे करुणा के सागर ! मूलगुणों के अंतर्गत पंच-उदम्बर फल त्याग व्रत में सूखे अथवा औषधि निमित्त उदम्बर फलों को, सर्व साधारण वनस्पति का, अदरक -मूली आदि अनन्तकायिक वनस्पति का, त्रस जीवों के आश्रयभूत वनस्पति का, बिना फाड़ किये सेमफली आदि एवं अनजान फलों का सेवन किया हो, कराया हो या करने वालों की अनुमोदना की हो, इत्यादि अतिचार – अनाचार दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे दया के सागर ! मूलगुणों के अंतर्गत मद्यत्याग व्रत में मर्यादा के बाहर का अचार, मुरब्बा आदि सर्व प्रकारके सन्धानों का, दो दिन व दो रात्रि व्यतीत हुए दही, छाछ एवं काँजी आदि का, आसवों एवं अर्को का तथा भांग, नागफेन, धतूरा, पोस्त का छिलका, चरस और गांजा आदि नशीले पदार्थों का स्वयं सेवन किया हो, कराया हो या सेवन करने वालों की अनुमोदना की हो तथा अन्य और भी जो अतिचार-अनाचार जन्य दोष लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे करुणा के सागर ! मूलगुणों के अंतर्गत मांस त्यागव्रत में चमड़े के बेल्ट, पर्स, जूता-चप्पल, घड़ी का पट्टा आदि का स्पर्श हो गया या चमड़े से आच्छादित अथवा स्पर्शित हींग, घी, तेल एवं जल आदि का, अशोधित भोजन का, जिसमें त्रस जीवों का संदेह हो ऐसे भोजन का, बिना छना हुआ अथवा विधिपूर्वक दुहरे छन्ने (वस्त्र) से नहीं छाना गया घी, दूध, तेल एवं जल आदि का, सड़े घुने हुये अनाज आदि का, शोधनविधि से अनभिज्ञ साधर्मी या शोधन-विधि से अपरिचित विधर्मी के हाथ से तैयार हुए भोजन का, बासा भोजन का, रात्रि भोजन का, चलित रस पदार्थों का, बिना दो फाड़ किये काजू, पुरानी मूंगफली, सेमफली एवं भिंडी आदि का और अमर्यादित दूध, दही तथा छांछ आदि पदार्थों का स्वयं सेवन किया हो, कराया हो या करते हुए ही अनुमोदना की हो, तज्जन्य अन्य जो भी अतिचार अनाचार दोष लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे परमपिता परमात्मा ! मूलगुणों के अंतर्गत मधुत्याग व्रत में औषधि के निमित्त मधु का, फलों के रसों का एवं गुलकन्द आदि स्वयं सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए ही अनुमोदना की हो, तज्जन्य अन्य भी अतिचार- अनाचार दोष लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

हे नित्य निरंजन देव ! मूलगुणों के अंतर्गत जीवदया व्रत पालन में प्रमाद किया हो, अज्ञान रखा हो, उपेक्षा की हो, बिना प्रयोजन जीवों को सताया हो तथा अंगोपांग छेदन किये हों, कराये हों या अनुमोदना की हो, तज्जन्य जो भी दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।)

( नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप करें )

जुआ, मांस, मदिरा, शिकार, वेश्यागमन, चोरी और परस्त्रीरमण इन सप्तव्यसन सेवन में जो पाप लगा हो – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

देव-दर्शन, पूजन, साधु उपासन- वैयावृत्ति, स्वाध्याय, संयमपालन, इच्छायें सीमित करना और अर्जित संपत्ति का सदुपयोग (दान देना) इन षडावश्यक पालन में अतिचारपूर्वक जो दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, पीड़ाचिन्तन और निदान ये चार आर्तध्यान । हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और निदान ये चार आर्तध्यान । हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द – ये चार रौद्रध्यान द्वारा जो – पाप लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा करने से जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

जीवों को सताने वाला दुष्ट मन, दुष्ट वचन और दुष्ट काय – ये तीन दण्ड, माया, मिथ्या और निदान ये तीन शल्य और शब्द गारव, ऋद्धि गर और सात गारव द्वारा जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह – इन चार संज्ञाओं के द्वारा जो पाप बन्ध हुआ हो – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

इहलोकभय, परलोकभय, मरणभय, वेदनाभय, अगुप्तिभय, अरक्षाभय (अत्राणभय ) और अकस्मात् भय द्वारा जो पापबन्ध हुआ हो तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

(नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप करें)
स्थूल हिंसाविरति व्रत का पालन करते हुए जीवों को मारा हो, बांधा हो, अंगोपांग छेदे हों, अधिक बोझ लादा हो, एवं अन्नपान का निरोध किया हो, इत्यादि अनेक दोष कृत-कारित अनुमोदना से किया हो – तस्स मिच्छा में दुक्कड़|

स्थूल असत्यविरति व्रत का पालन करते हुए मिथ्योपदेश देने से, एकान्त में कही हुई बात को प्रगट कर देने से, झूठा लेख लिखने से तथा किसी भी इंगित चेष्टा से अभिप्राय समझ कर भेद प्रकट कर देने से जो दोष मन- वचन-काय एवं कृत-कारित अनुमोदना से लगे हों तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।

स्थूल चौर्यविरति व्रत के पालन करने में चोर द्वारा चुराया हुआ द्रव्य ग्रहण किया हो, राज्य के विरुद्ध कार्य किया हो, धरोहर हरण करने के भाव किये हों, तौलने के बाँट कमती या बढ़ती रखे हों और अधिक कीमती वस्तु में अल्प कीमती वस्तु मिलाकर बेची हो एवं मन, वचन, काय एवं कृत-कारित अनुमोदना से, चोरी का प्रयोग बतलाने से जो दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

स्थूल अब्रह्मविरति व्रत पालन करने में व्यभिचारिणी स्त्री के साथ आने-जाने का व्यवहार रखा हो, कुमारी, विधवा एवं सधवा आदि अपरिगृहीत स्त्रियों के साथ आने-जाने का लेन-देन का व्यवहार रखा हो, काम सेवन के अंगों को छोड़कर दूसरे अंगों से कुचेष्टाएं की हों, काम के तीव्र वेग से बीभत्स विचार बने हों और मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से अन्य के पुत्र-पुत्रियों का विवाह किया हो, इस प्रकार जो भी दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत में मन, वचन, काय एवं कृत, कारित अनुमोदना से जमीन और मकान आदि के प्रमाण का उल्लंघन किया हो, गाय, बैल आदि धन, अनाज आदि धान्य, दासी दास, चांदी-सोना, वस्त्र एवं बर्तन आदि के प्रमाण का उल्लंघन किया हो, तज्जन्य जो भी दोष लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं ।

(नौ बार णमोकार का जाप करें )

दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति व्रत ये तीन गुणव्रत और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग परिमाणव्रत, अतिथिसंवि भागव्रत, , ये चार शिक्षाव्रत रूप बारह व्रतों में जो दोष लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं । पाँच इन्द्रियों और मन को वश में न करने सो जो पाप लगे हों – तस्स – – मिच्छा में दुक्कडं।

मोह के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वस्त्र एवं स्त्रियों को आकर्षित करने वाला शरीर का श्रृंगार किया हो, राग के उद्रेक से युक्त हँसी में अशिष्ट वचनों का प्रयोग किया हो और परस्पर प्रीति से रहने वालों के बीच में द्वेष किया हो, तज्जन्य जो दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

तप और स्वाध्याय से हीन असम्बद्धप्रलाप करने में, अन्यथा पढ़ने- पढ़ाने से एवं अन्यथा ग्रहण (सुने) करने से जो दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका की किसी भी प्रकार से निन्दा की हो, कराई हो, सुनी हो, सुनाई हो इससे जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

साधुओं वा साधर्मियों से कटु वचन बोला हो एवं आहार दान देने में प्रमाद करने से जो दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

देव-शास्त्र-गुरु की अविनय एवं आसादना से जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं। पाश्चात्य वेशभूषा का उपयोग कर टी.वी. आदि देखकर एवं उपन्यास आदि पढ़कर शील में जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

उच्च कुलों को गर्हित कुल बनाने में कृत-कारित – अनुमोदना से सहयोग देने में जो पाप लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं ।
चलने-फिरने, शरीर को हिलने-हिलाने, उठने-बैठने, छींकने-खांसने, सोने, जम्हाई लेने और मार्ग पर चलते-चलाने में, देखे-अनदेखे तथा जाने-अनजाने में जो दोष लगे हों – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

किसी भी जीव को मैंने दबा दिया हो, कुचल दिया हो, घुमा दिया हो, भयभीत कर दिया हो, त्रास दिया हो, वेदना पहुँचाई हो, छेदन-भेदन कर दिया हो, अथवा किसी प्रकार से भी कष्ट पहुँचाया हो – तस्स मिच्छा में दुक्कडं।

जाने-अनजाने में और भी जो दोष लगे हों तस्स मिच्छा में दुक्कडं। हा दुटुक हा दुट्ठचिंतियं, भासियं च हा दुटुं।

अंतो अंतो डज्झमि पच्छत्तावेण वेयंतो।।

हाय-हाय । मैंने दृष्ट कर्म किये, मैंने दुष्ट कर्मों का बार-बार चिन्तवन किया, मैंने दुष्ट मर्म-भेदक वचन कहे – इस प्रकार मन, वचन और काय की दुष्टता से मैंने अत्यन्त कुत्सित कर्म किये। उन कर्मों का अब मुझे अत्यन्त पश्चाताप है।

हे प्रभु! मेरा किसी के भी साथ राग नहीं है, द्वेष नहीं है, बैर नहीं है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं है, अपितु सर्व जीवों के प्रति उत्तम क्षमा है।

जब तक मोक्षपद की प्राप्ति न हो तब तक भव-भव में मुझे शास्त्रों के पठन-पाठन का अभ्यास, जिनेन्द्र पूजा, निरन्तर श्रेष्ठ पुरुषों की संगति, सच्चरित्र, सम्पन्न पुरुषों के गुणों की चर्चा, दूसरों के दोष कहने में मौन, सभी प्राणियों के प्रति प्रिय और हितकारी वचन एवं आत्मकल्याण की भावना (प्रतीत) ये सब वस्तुएँ प्राप्त होती रहें।

हे जिनेन्द्र ! मुझे जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक आपके चरण मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके चरणों में लीन रहे।

हे भगवन ! मेरे दुःखों का क्षय हो, कर्मों का नाश हो, रत्नत्रय की प्राप्त हो, शुभगति हो, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो, समाधिमरण हो और श्री जिनेन्द्र के गुणों की प्राप्ति हो- ऐसी मेरी भावना है, ऐसी मेरी भावना है, ऐसी मेरी भावना है।

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प्रतिक्रमण किसे कहते है?

जब तक जीव संसार में है अर्थात् जब तक मन, वचन और काय का व्यापार बुद्धिपूर्वक होता है तब तक दोषों की उत्पत्ति सहज है। यानी जब तक प्रवृत्ति है तब तक सर्वथा निर्दोष कोई नहीं होता। जैनधर्म में करुणावन्त आचार्यों ने पाप क्रियाओं से एवं पाप के दुःखमय फलों से बचने के लिए अनेक धर्म साधनों का निर्देश दिया है, उनमें प्रमुख है – प्रतिक्रमण

गृहीत व्रतों / कर्त्तव्यों में लगे हुए दोषों के परिमार्जन को प्रतिक्रमण कहते हैं अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावों के निमित्त से कषाय और प्रमाद के वशीभूत से व्रतों में लगे हुए अतिचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है। साधु साध्वी, क्षुल्कक – क्षुल्लिका और व्रती श्रावक-श्राविकाएँ नियम से प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते हैं।

पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भेद से श्रावक तीन प्रकार के हैं श्रद्धावान, , विवेकवान और क्रियावान। श्रावक के उक्त तीन भेदों में पाक्षिक श्रावक अपने धर्म, देव शास्त्र – गुरु तथा अहिंसादि के परिपालनार्थ सदा पक्ष रखता है। आज्ञा प्रधानी वह पाक्षिक श्रावक जिनेन्द्र देव की आज्ञान का पालन करते हुए हिंसादि त्याग हेतु सर्वप्रथम सप्त व्यसनों का त्यागकर अष्टमूल गुण धारण करता है और षट् आवश्यकों का पालन करता है। प्रतिमारूप व्रत ग्रहण करने की शक्ति न होने के कारण वह उपर्युक्त क्रियाओं के साथ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को भी अवश्य धारण करता है। इन नियमों के प्रतिपादन में प्रमाद आदि के कारण प्रतिदिन अनेक दोष लगते हैं अतः इन दोषों की शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त एवं पश्चात्ताप पूर्वक प्रतिदिन प्रतिक्रमण कर अपने पाक्षिक श्रावकीय जीवन को सार्थक करना चाहिए।

Note

Jinvani.in मे दिए गए सभी स्तोत्र, पुजाये, आरती आदि, Shravak Pratikraman जिनवाणी संग्रह संस्करण 2022 के द्वारा लिखी गई है, यदि आप किसी प्रकार की त्रुटि या सुझाव देना चाहते है तो हमे Comment कर बता सकते है या फिर Swarn1508@gmail.com पर eMail के जरिए भी बता सकते है।

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