भाषाकार : कविश्री भूधरदास
(दोहा)
बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जग-माँहिं|
त्यों चक्री-नृप सुख करे, धर्म विसारे नाहिं ||१||
(जोगीरासा व नरेन्द्र छन्द)
इहविधि राज करे नरनायक, भोगे पुण्य-विशालो|
सुख-सागर में रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो||
एक दिवस शुभ कर्म-संजोगे, क्षेमंकर मुनि वंदे|
देखि श्रीगुरु के पदपंकज, लोचन-अलि आनंदे ||२||
तीन-प्रदक्षिण दे सिर नायो, कर पूजा थुति कीनी|
साधु-समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन-दृष्टि दीनी||
गुरु उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुनि राजा वैरागे|
राज-रमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ||३||
मुनि-सूरज-कथनी-किरणावलि, लगत भरम-बुधि भागी|
भव-तन-भोग-स्वरूप विचार्यो, परम-धरम-अनुरागी||
इह संसार-महावन भीतर, भरमत ओर न आवे|
जामन-मरन-जरा दव-दाहे, जीव महादु:ख पावे||४||
कबहूँ जाय नरक-थिति भुंजे, छेदन-भेदन भारी|
कबहूँ पशु-परयाय धरे तहँ, वध-बंधन भयकारी||
सुरगति में पर-संपति देखे, राग-उदय दु:ख होई|
मानुष-योनि अनेक-विपतिमय, सर्वसुखी नहिं कोई||५||
कोई इष्ट-वियोगी विलखे, कोई अनिष्ट-संयोगी|
कोई दीन-दरिद्री विलखे, कोई तन के रोगी||
किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी-सम भाई|
किस ही के दु:ख बाहर दीखें, किस ही उर दुचिताई||६||
कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवे|
खोटी-संतति सों दु:ख उपजे, क्यों प्रानी सुख सोवे||
पुण्य-उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख-साता|
यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखे दु:खदाता||७||
जो संसार-विषे सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे|
काहे को शिवसाधन करते, संजम-सों अनुरागे||
देह अपावन-अथिर-घिनावन, या में सार न कोई|
सागर के जल सों शुचि कीजे, तो भी शुद्ध न होई||८||
सात-कुधातु भरी मल-मूरत, चर्म लपेटी सोहे|
अंतर देखत या-सम जग में, अवर अपावन को है||
नव-मलद्वार स्रवें निशि-वासर, नाम लिये घिन आवे|
व्याधि-उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावे||९||
पोषत तो दु:ख दोष करे अति, सोषत सुख उपजावे|
दुर्जन-देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे||
राचन-योग्य स्वरूप न याको, विरचन-जोग सही है|
यह तन पाय महातप कीजे, या में सार यही है||१०||
भोग बुरे भवरोग बढ़ावें, बैरी हैं जग-जी के|
बेरस होंय विपाक-समय अति, सेवत लागें नीके||
वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दु:खदाई|
धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई||११||
मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने|
ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने||
ज्यों-ज्यों भोग-संजोग मनोहर, मन-वाँछित जन पावे|
तृष्णा-नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर-जहर की आवे||१२||
मैं चक्री-पद पाय निरंतर, भोगे भोग-घनेरे|
तो भी तनक भये नहिं पूरन, भोग-मनोरथ मेरे||
राज-समाज महा-अघ-कारण, बैर-बढ़ावन-हारा|
वेश्या-सम लछमी अतिचंचल, याका कौन पत्यारा||१३||
मोह-महारिपु बैरी विचारो, जग-जिय संकट डारे|
घर-कारागृह वनिता-बेड़ी, परिजन-जन रखवारे||
सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरण-तप, ये जिय के हितकारी|
ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी||१४||
छोड़े चौदह-रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग-साथी|
कोटि-अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी-लख हाथी||
इत्यादिक संपति बहुतेरी, जीरण-तृण-सम त्यागी|
नीति-विचार नियोगी-सुत को, राज दियो बड़भागी||१५||
होय नि:शल्य अनेक नृपति-संग, भूषण-वसन उतारे|
श्रीगुरु-चरण धरी जिन-मुद्रा, पंच-महाव्रत धारे||
धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज-धारी|
ऐसी संपति छोड़ बसे वन, तिन-पद धोक हमारी||१६||
(दोहा)
परिग्रह-पोट उतार सब, लीनों चारित-पंथ|
निज-स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रंथ||
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