कविवर दौलतराम
दोहा
सकल-ज्ञेय-ज्ञायक तदपि निजानन्द-रस-लीन।
सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन॥
पद्धरि
जय वीतराग-विज्ञान पूर, जय मोह तिमिर को हरन सूर।
जय ज्ञान अनन्तानन्त धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार॥
जय परम शान्त मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत।
भवि भागन बच-जोगे वशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय॥
तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक, प्रगटै, विघटैं आपद अनेक।
तुम जगभूषण दूषणवियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त॥
अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप परमात्म परम पावन अनूप।
शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परिणतिमय अछीन॥
अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्व-चतुष्टयमय राजत गम्भीर।
मुनि-गणधरावि सेवत महन्त, नव- केवल-लब्धि – रमा धरन्त॥
तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाँहिं जैहैं सदीव
भव-सागर में दुख क्षार वारि, तारन को और न आप टारि॥
यह लखि निज दुख-गद हरण काज, तुम ही निमित्त कारण इलाज।
जाने तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय॥
मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप अपनाये विधिफल पुण्यपाप।
निज को पर को करता पिछान, पर में अनिष्टता इष्ट ठान॥
आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृग-तृष्णा जानि वारि।
तन-परिणति में आपो चितार, कबहूँ न अनुभवो स्वपद सार॥
तुमको बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश।
पशु-नारक-नर- सुर-गति-मँझार, भव धर-धर मर्यो अनन्त बार॥
अब काल-लब्धि-बल तैं दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल।
मन शान्त भयो मिटि सकल द्वन्द, चाख्यो स्वातम-रस दुखनिकन्द॥
तातैं अब ऐसी करहु नाथ, बिछुरै न कभी तुम चरण साथ।
तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुम विरद एव॥
आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय।
मैं रहूँ आप में आप लीन, सो करो हो ज्यों निजाधीन॥
मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय-निधि दीजै मुनीश।
मुझ कारज के कारन सु आप, शिव करहु, हरहु मम मोह-ताप॥
शशि शान्तिकरन तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत।
पीवत पियूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभव तैं भव नशाय।।
त्रिभुवन तिहुँ काल मँझार कोय, नहि तुम बिन निज सुखदाय होय।
मो उर यह निश्चय भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जहाज।।
दोहा
तुम गुण-गण-मणि गणपती, गणत न पावहिं पार।
दौल’ स्वल्पमति किम कहै, नमहुँ त्रियोग सम्हार॥
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