केवल शरीर को तपाना तप नहीं अपितु इच्छा का निरोध करना तप है। जिसप्रकार से राग-द्वेष-मोह रूप मैल भिन्न हो जाए तथा शुद्ध ज्ञान-दर्शनमय आत्मा भिन्न हो जाए, वह तप है। कर्मों का संवर तथा निर्जरा करने का प्रधान कारण तप है ।
तप ही आत्मा को कर्म मल रहित करता है। तप के प्रभाव से यहाँ ही अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, तप का अचिन्त्य प्रभाव है। तप बिना काम को, निद्रा को कौन मारे ? तप बिना इच्छाओं को कौन मारे? इंद्रियों के विषयों को मारने में तप ही समर्थ है। तप की साधना करनेवाला परिषह-उपसर्ग आदि आने पर भी रत्नत्रय धर्म से च्युत नहीं होता है। अतः तपधर्म को धारण करना ही उचित है। तप किये बिना संसार से छुटकारा नहीं होता है। चक्रवर्ती भी राज्य को छोड़कर तप धारण करके तीन लोक में वन्दन योग्य पूज्य हो जाते हैं। अतः तीन लोक में तप समान महान अन्य कुछ भी नहीं है।