जिनगीतिका
(तर्ज-प्रभु पतित पावन……!)
अरहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु जन के पद नमूँ,
जिनधर्म जैनागम जिनेश्वर, मूर्ति जिनगृह में रमूँ ।
नवदेव मुझको वैद्य सम हों, जन्म मृति जर रुज हरें,
जिन नाम पद मम औषधी हों, माथ पर पद रज धरें ॥
ओं ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य चैत्यालय देवताः अत्र अव अवतरत संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनम् ! अत्र मम सन्निहिताः भवत भवत वषट् सन्निधीकरणम् !
दश अष्ट दोष विनष्ट करके, वीतरागी हो गये,
सर्वज्ञ तीर्थंकर बने तब, हम तुम्हारे हो गये ।
अरिहंत जिनवर आप्त को भज, जन्म मृत्यु जरा हरें,
इस हेतु निर्मल नीर लेकर, देव नव पूजा करें ॥
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु कर्म मल से मुक्त होकर, सिद्ध पद को पा गये,
उनकी शरण में पाप धोने, भक्त गण हम आ गये ।
हम मोक्ष इच्छुक सिद्ध भजते, लक्ष्य शिव पद का बना,
नवदेव को चन्दन चढ़ाते, गंधयुक्त सुहावना
ओं ह्रींअर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पालते पालन कराते, पंचविध आचार को,
उन सूरि हिमगिरि से निकलती, धार लूँ शुचि धार को ।
भवभीत ज्ञानी सूरिवर ने, लक्ष्य अक्षय सुख चुना,
नवदेव को अक्षत चढ़ाते, गीत गाते गुन गुना
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
जो ज्ञान ज्योति प्रदान करते, भव्य जन को सर्वदा,
शशि सूर्य किरणें मन्द पड़ती, सामने जिनके सदा ।
श्रुतज्ञानधारी पाठकों ने, चित्त को वश में किया,
नवदेव को मृदु कुसुम अर्पित, ब्रह्मपुष्प खिले हिया ॥
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आतमा को साधते हैं, ज्ञान दर्शन चरित से,
वे साधु गिरने से बचाते, थामते व्रत त्वरित से।
कल्याणकारी साधु पूजा, अघ हरे साता करे
नवदेव को नैवेद्य अर्पित, भूख की बाधा हरे
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन धर्म को जिसने धरा वह, पार हो संसार से,
शाश्वत सुखी हो मुक्ति पायी, सर्वथा दुख क्षार से।
शिव सौख्य दात्री धर्म पूजा, मोह के तम को हरे,
नवदेव को यह दीप अर्पित, ज्ञान को विकसित करे ॥
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवचन अमृत औषधी सम, मानकर जिसने पिये,
उसने विषय सुख कर विरेचित, आत्मसुख अपने किये ।
जर मरण भव दुख नाश करने, जैन वच औषध रहें,
नवदेव की ध्यानाग्नि में हम, पाप कर्मों को दहें ॥
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनबिम्ब दर्शन से जिन्होंने, मोह मिथ्यातम हरा,
उन भव्य जीवों को मिला है, एक दिन शिव सुख खरा ।
वैराग्यमय जिन चैत्य अर्चा, मोक्ष फल देती महाँ,
नवदेव को श्रीफल चढ़ाते, पूजते हम सब यहाँ ॥
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन मंदिरों को जिनसभा सम, मान जो आते सदा,
वे एक दिन भव मुक्त होकर, सिद्ध पद पाते मुदा ।
जिनदेव के ये जैन मंदिर, मोक्ष मंजिल द्वार हैं,
नवदेव की यह अर्घ पूजा, भव जलधि पतवार है ॥
ॐ ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (यशोगान-1)
जिन शिव सूरि श्रुती श्रमण, जैन धर्म जिन वैन।
चैत्य- चैत्यगृह देव नव, नमूँ जैन दिन रैन ॥
ज्ञानोदय
त्रिभुवन भव्य कमल दिनकर जिन, घातिकर्म हन आप्त बने,
अनंत दर्शन ज्ञान वीर्य सुख, हे जिन! तुममें प्राप्त घने ।
अष्ट प्रातिहार्यों से मण्डित, तीस चार अतिशय धारी,
इन्द्र वंद्य अरिहंत जिनेश्वर, मुझे बना दो गुणधारी ॥ 1॥
वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, आप्त देव की कर श्रद्धा,
भवि सम्यक्त्व प्रकट कर लेते, तत्त्व ज्ञान धारी विबुधा
अथवा मुनि की संगति पाकर, रत्नत्रय को पा जाते,
फिर अरहंत सिद्ध बन करके, नहीं लौट भव में आते ॥ 2 ॥
पंच महाव्रत से जो उन्नत, प्राणिमात्र आश्रय दाता,
तात्कालिक उत्तर देने को, स्वपर शास्त्र के परिज्ञाता ।
गुण समूह से मण्डित गुरुवर, महायशस्वी प्रतिभावान्,
वे आचार्यवर्य गुरु मुझ पर, नित प्रमुदित हो बहुगुणवान् ॥ 3॥
मोह और अज्ञान तिमिर में, भटक रहे भवि सभ्यों को,
सम्यग्ज्ञान ज्योति देते हैं, उपाध्याय मुनि भव्यों को ।
पाप मार्ग से दूर हटाने, ज्ञान दीप लेकर चलते
ऐसे बहुश्रुतज्ञानी जग में, तप का तेल डाल जलते ॥ 4॥
मूलगुणों के उत्तर गुण के, बहुविध धार लिए गहने,
शील व्रतों की गुणमणिमाला, आजीवन उर में पहने।
यशः सुरभि से जिनमें सुरभित, मोक्ष साधना के कुसुमा,
वे मुनिवर परमेष्ठी मुझको, शीघ्र दिखायें शिव सुषमा ॥ 5॥
जीव दया मय रत्नत्रय मय वस्तु तत्त्व मय धर्म रहा,
उत्तम क्षमादि दश धर्मो मय, जिनवर ने जिन धर्म कहा।
समीचीन इस धर्म बन्धु को, जब भवि अपना कर लेता,
तब उसको यह भव दुःखों से उठा मोक्ष में धर देता ॥6॥
द्वादशांग अनुयोग चतुर्विध, सप्त तत्त्व षड् द्रव्य जहाँ,
नव पदार्थ पंचास्तिकाय का वर्णन हो वह शास्त्र महाँ ।
आगम रूप वचन की गंगा, तीर्थंकर मुख से निकली,
भव्यजनों के अघ कल्मष को, धोती बहती गलीगली ॥7॥
वीतराग की प्रतीक मानी, जिन प्रतिमा अप्रतिम रहीं,
प्रति मंदिर में शतवसु प्रतिमा, शाश्वत होतीं अनुप कहीं।
तीन लोक के कृत्रिमाकृत्रिम, पूजनीय शिवपुर द्वारे,
चैत्यचैत्यगृह जिनवर के जो, मुझको भवदधि से तारें ॥8॥
पंच परम गुरु नव देवों सम, नहीं कोई मंगलकारी,
इनके सिवा नहीं लोकोत्तम, और न शरणा दुखहारी ।
ऐसे वीतराग जिनदेवा, मेरे ऐसे मन में नित्य रहें,
तज कठोरता यह मति मृदु हो, नवदेवों की भृत्य रहे ॥ १ ॥
ओं ह्रीं अर्हदादिनवदेवेभ्यो नमः पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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Note
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