पुष्पमंजरी छन्द
वीतराग देव आपका सुदर्श पा गया
नमीश जैन जिनेश उर धर्म सौख्यदायि मुझको भा गया॥
जिनेश उर पधारिये मृदुल हृदय समाइये
मोक्षमार्ग पे चलूँ सुमार्ग को बताइये॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
मोह जीत आपने जनम मरण मिटा दिया।
नमीश पूज भक्त ने मिथ्यात्व को हटा लिया॥
शुद्ध नीर अर्पते जरा मरण विनाश हो।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान आवरण विनाश ज्ञान पूर्ण पा लिया।
नमीश आपने विराग आत्म ज्ञान पा लिया॥
दिव्य गन्ध अर्पते ममात्म ताप नाश हो ।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
दृगावरण अभाव से सुपूर्ण दर्श पा लिया ।
नमीश आज पूज के स्व नेत्र को सफल किया॥
सुपूर्ण तदुलों को अर्प निजात्म वास हो ।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो ॥
ओं ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
सु अन्तराय कर्म नाश नन्त वीर्य पा लिया।
नमीश आप भक्त ने व्रतों को आज धर लिया॥
सुदिव्य पुष्प अर्पते अब्रह्म का विनाश हो।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो ॥
ओं ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
सु आप नाम कर्म नाश सूक्ष्मता को पा गये।
नमीश अनशनादि ताप वृत्त चित्त भा गये
द्राक्ष को चढ़ा रहे क्षुधादि रोग नाश हो ।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो ॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगोत्र कर्म नाश के सु अगुरुलघु गुण खिला।
सु आपके नमन से मुझे उच्च आचरण मिला ॥
दिव्य दीप अर्पते कुनीच गोत्र नाश हो।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो ॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सु आयु कर्म मुक्त हो गुणावगाहना खिला
नमीश आप भक्ति से कुबन्ध पाप का टला
सु शुद्ध धूप को चढ़ा कुकर्म बन्ध नाश हो ।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो
ओं ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सु वेदनीय नाश के अबाध सौख्य पा गये ।
नमीश आप भक्ति से असात कर्म कट गये॥
आपको सुफल चढ़ाऊँ पाप दुःख नाश हो ।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट कर्म से विमुक्त आप मोक्ष पा गये।
अष्ट गुण सुयुक्त हो मृदुल हृदय समा गये॥
अष्ट अर्घ अर्पते सु दुःख का विनाश हो।
नमीश आपके पदों में आत्म का विकास हो॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ दोहा
मात वप्पिला गर्भ में, आये नाथ नमीश ।
आश्विन कृष्णा दोज को, अपराजित तज ईश ॥
ओं ह्रीं आश्विन कृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणमण्डितश्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
दशमी कृष्ण अषाढ़ को जन्मे नमि भगवान।
मिथिला नृप श्री विजय गृह, हुये सुमंगलगान॥
ओं ह्रीं आषाढ़ कृष्णदशम्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
पूर्व भवों का स्मरण कर, प्रकट हुआ वैराग्य।
सहस्त्र नृप सह तप धरा, जन्म दिवस सौभाग्य॥
ग्राम वीरपुर दत्त नृप, दिया शुद्ध आहार।
बेला का उपवास कर, नव वर्षों तप धार॥
ओ ह्रीं आषाढकृष्णदशम्यां तपः कल्याणमण्डित श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
अगहन सित एकादशी, पाते केवलज्ञान।
तत्त्व बोध सबको दिया, नष्ट हुआ अज्ञान॥
ओं ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां ज्ञानकल्याणमण्डितश्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
अलि वैशाख चतुर्दशी, गिरि सम्मेद पधार।
मुक्ति प्राप्त कर शिव गये, सहस्त्र मुनि सहकार॥
ओं ह्रीं वैशाखकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्ध।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
साठ लाख बीते बरस, सुव्रत पाते मोक्ष।
तब जन्मे नमिनाथ जिन, इनको नमूँ परोक्ष॥
ज्ञानोदय छन्द
पन्द्रह धनुष ऊँचाई जिनकी, दश हजार वर्षायुष थी।
देह कान्ति तो स्वर्ण वर्ण थी, पंच सहस राज्यायुष थी॥
गजारूढ़ प्रभु वन विहार में, तभी देव द्वय आते हैं।
भरत क्षेत्र में नमि तीर्थंकर, होंगे बात सुनाते हैं ॥
देवों से निज वार्ता सुनकर, नमि प्रभु नगर लौट आते।
अनादि काल के सम्बन्धों का, निज विचार करते भाते ॥
पिंजड़े अन्दर पक्षी जैसा, मैं शरीर में निवस रहा।
चारों गतियों में दुख पाता, कर्मों के वश विवश रहा॥
ज्ञान बिना वैराग्य बिना मैं, भटक भटक कर आया हूँ।
अब विलम्ब बिन तप धारण को, अपूर्व अवसर पाया हूँ॥
लौकान्तिक सुर तत्क्षण आकर, तप अनुमोदन करते हैं।
नमि प्रभु सुप्रभ सुत को अपना, राज्य समर्पित करते हैं ॥
उत्तर कुरु नामा सुपालकी, जिस पर प्रभु आरूढ़ हुए।
चैत्य सुवन के शुचि उपवन में, दीक्षा को तैयार हुए ॥
बेला युत उपवास किया प्रभु, दत्त भूप गृह पारण की ।
द्वय अनशन सह वकुल वृक्ष तल, केवलज्ञान लब्धि मिलती॥
समवसरण की रचना होती, प्रभु ने दिव्य देशना दी।
सुप्रभ प्रमुख गणीश सप्तदश, एक हजार आर्यिका थीं॥
इक लख श्रावक त्रिगुण श्राविका, असंख्य सुर तिर्यञ्च गिने।
जिन उपदेश श्रवण कर तिरते, जग से भविजन बिना गिने॥
मास एक आयुष रहने पर, प्रभु विहार से विमुख हुए।
गिरि सम्मेद पहुँच कर प्रभुवर, आत्म ध्यान के सुमुख हुए॥
एक हजार श्रमण संघों के साथ मोक्ष को आप गये।
जिनके चरण कमल में मेरा नमन मृदुलता साथ लिये॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।
नील कमल पद में लसे, नमि जिनकी पहचान ।
विद्यासागर सूरि का, संयम स्वर्ण महान॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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