पं. जवाहरदास दोहा
‘श्रीजिन बीस जिनेश के, बीसों शिखर महान ।
और असंख्य मुनीश जहँ, पहुँचे शिवपद थान ॥
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितं भव भव वषट् ।
अष्टक (गीतिका छन्द)
पदमद्रह को नीर निर्मल हेम झारी में भरों।
तृषा रोग निवारने को, चरणतर धारा करों ।।
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये ।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन कपूर मिलाय केसर, नीर सौं घसि लाइये।
जिनराज पाप विनाश हमरे, भवाताप मिटाइये | |
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये ।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं०
चन्द्र के सम ल्याय तन्दुल, कनक थारन में भरों।
अक्षय सुपद के कारणै, जिनराज पदपूजा करों
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये ।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्
कुन्दकमलादिक चमेली गन्धकर मधुकर फिरैं।
मदनबाण विनाशवे को, प्रभु चरण आगैं धरै॥
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय कामबाणविनाशाय पुष्पं०
नेवज मनोहर थाल में भर, हरष कर ले आवने ।
करहुँ पूजा भावसौं नर, क्षुधारोग मिटावने ।
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशन नैवेद्यं०
दीपज्योति प्रकाश करके, प्रभू के गुण गावने ।
मोह तिमिर विनाश करके, ज्ञानभानु प्रकाशने।
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं०
वर धूप सुन्दर ले दशांगी, ज्वलन माँहिं सु खेइए।
वसु कर्म नाशन के सु कारण, पूज प्रभुपद बेइए ||
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं०
उत्कृष्ट फल जग माँहिं जेते, ढूँढ़ करके लाइए।
जो नेत्र रसना लगै सुन्दर, फल अनूप चढ़ाइए ||
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं
वसुद्रव्ययुत शुभ अर्घ लेकर, मन प्रफुल्लित कीजिए ।
तव दास यह वरदान माँगे, मोक्ष लक्षमी दीजिए ।
सम्मेदगढ़तैं मुनि असंख्ये, करम हर शिवपुर गये।
सो थान परम पवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये ॥
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
नित करैं जे नर नारि पूजा, भाव भक्ति सु लायके ।
तिनको सुजस कहता ‘जवाहर’ हरष मन में धारके॥
ते है सुरेश नरेश खगपति, समझ पूजाफल यही ।
सम्मेदगिरि की करहुँ पूजा, पाय हो शिवपुर मही ।।
ॐ ह्रीं असंख्यातमुनिसिद्धपददायकाय श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय पूर्णा
रोला छन्द
परम शिखरसम्मेद सबहि को है सुख करता ।
वन्दें जे नरनारि तिन्हों के अघ सब हरता ।।
नरक पशूगति टरै सुक्ख जग के बहु पावें ।
नरपति सुरपति होंय, फेरि शिवपुर को जावें।।
इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
अथ उपदेश
दोहा
जे तीरथ वन्दें नहीं, सुनें धर्म नहिं सार ।
ते भव-वन में भ्रमहिंगे, कबहुँ न पावैं पार॥१॥
नरभव उत्तम पायके, श्रावक कुल अवतार ।
पूजा जिनवर की करें, ते उतरें भवपार ॥२॥
सब विधि जोग जु पायके, शिखर न वन्दें सार ।
रतन पदारथ पायके, दे समुद्र में डार ||३||
नोट – इस हुण्डावसर्पिणी कालविशेष में वर्तमान के चार तीर्थंकर श्रीसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र को छोड़कर अन्य-अन्य स्थानों से मोक्ष पधारें हैं।
आदिनाथ अष्टापद
ढाल कातिक
प्राणी हो आदीश्वर महाराज जी, अष्टापद शिवथान हो ।
पूजत सुर हर नर सकल, सो पावै पद निर्वाण हो ।।
प्राणी हम पूजत इन ही सदा, ये नाशैं भवभव-भीति हो ।
प्राणी पूजौं मन वच काय कर ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्रादिमुनिसिद्धपददायकाय श्रीकैलाशगिरिसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यंο
वासुपूज्य मन्दारगिरि
सोरठा – वासुपूज्य जिनराय, चम्पापुर तैं शिव गये ।
मन वच जोग लगाय, पूजों पदयुग अर्घ ले ॥२॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यसिद्धपददायकाय श्रीचम्पापुरसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
नेमिनाथ ऊर्जयन्तकूट
दोहा – नेमीश्वर तजि राजमति, लीनी दीक्षा जाय ।
सिद्ध भये गिरनार तैं, पूजों अर्घ बनाय ॥३॥
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथसिद्धपददायकाय श्रीगिरिनारसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महावीरकूट
सुन्दरी छन्द
वर्द्धमान जिनेश्वर पूजिए, सकल पातक दूर सु कीजिए ।
गहु पावापुर तैं मोक्ष को, तिनहिं पूजत अर्घ सँजोयके ॥४॥
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरसिद्धपददायकाय श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
तीर्थंकर चौबीस के, गणनायक हैं जेह ।
तिनको पूजों अर्घ ले, मन-वच धारि सनेह ॥५॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिजिनगणधरचरणेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सिद्धक्षेत्र जे और हैं भरतक्षेत्र के ठाहिं ।
अवर जु अतिशय क्षेत्र हैं, कहे जिनागम माँहिं ॥
तिनके नाम सु लेत ही, पाप दूर हो जाय ।
ते सब पूजों अर्घ ले, भव-भव में सुखदाय ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीभरतक्षेत्रसम्बन्धिसिद्धक्षेत्रातिशयक्षेत्रेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सोरठा
द्वीप अढाई माँहिं, सिद्धक्षेत्र जे और हैं।
पूजों अर्घ्य चढ़ाय भव-भव के अघनाश हैं ।। ७ ।
ॐ ह्रीं सार्द्धद्वयद्वीपस्य विद्यमानसमस्तसिद्धक्षेत्रेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल
पूजों तीस चौबीस परम सुखदाय जू।
भूत भविष्यत वर्तमान गुण गाय जू ॥
अरु विदेह के बीस नमों शिर नाय जू ।
अर्चों अर्ध बनाय सु विघन पलाय जू ॥ ८॥
ॐ ह्रीं श्रीभूतभविष्यद्वर्तमानसम्बन्धिचतुर्विंशतितीर्थङ्करेभ्यो विदेहक्षेत्रे शाश्वतविद्यमान- विंशतितीर्थंकरेभ्यश्च अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
कृत्याकृत्रिम जे कहे, तीन लोक के माय ।
ते सब पूजौं अर्घ ले हाथ जोर शिर नाय ।।
ॐ ह्रीं श्रीत्रिलोकसम्बन्धिकृत्याकृत्रिमजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अर्ध्यं निर्व. स्वाहा ।
जयमाला
लोलतरंग छन्द
मनमोहन तीरथ शुभ जानो, पावन परम सुक्षेत्र प्रमानो ।
उन्नत शिखर अनूपम सोहै, देखत ताहि सुरासुर मोहै ॥
दोहा
तीरथ परम सुहावनो, शिखर समेद विशाल ।
कहत अल्पबुधि उक्तिसौं, सुखदायक चौपाई जयमाल ॥
सिद्धक्षेत्र तीरथ सुखदाई, वन्दत पाप दूर हुइ जाई ।
शिखर शीश पर कूट मनोग्य, कहे बीस अति शोभा योग्य ||१||
प्रथम सिद्धवरकूट सुथान, अजितनाथ को मुक्ति सुथान ।
कूट तनो दरशन फल एह, कोटि बत्तीस उपास गिनेह ॥२॥
दूजा धवलकूट है नाम, सम्भवप्रभु जहँतै शिवधाम ।
दरश कोटि प्रोषधफल जान, लाख बियालिस कह्यो बखान ||३||
आनन्दकूट महासुखदाय, जहँतै अभिनन्दन शिव जाय।
कूटतनो दरशन इम जान, लाख उपास तणो फल मान ||४||
अविचल कूट महासुख वेश, मुक्ति गये जहँ सुमति जिनेश ।
कूट भाव धरि पूजै कोय, एक कोटि प्रोषधफल होय ॥५॥
मोहनकूट मनोहर जान, पद्मप्रभ जहँतैं निर्वान ।
कूट पूज फल लेहु सुजान, कोटि उपास कह्यो भगवान ||६||
मनमोहन है कूट प्रभास, मुक्ति गये जहँ नाथ सुपास।
पूजे कूट महाफल होय, कोटि बतीस उपास जु सोय ॥७॥
चन्द्रप्रभ का मुक्ति सुधाम, परम विशाल ललितघट नाम ।
कूट तनो दरशन फल जान, प्रोषध सोलह लाख बखान ॥८॥
सुप्रभ कूट महासुखदाय, जहँतैं पुष्पदन्त शिवपाय ।
पूजो कूट महाफल लेव, कोडि उपास कह्यो जिनदेव ॥९॥
श्री विद्युतवर कूट महान, मोक्ष गये शीतल धरि ध्यान ।
पूजै त्रिविधजोग कर कोय, कोड़ि उपास तनो फल होय ॥१०॥
संकुलकूट महाशुभ जान, श्री श्रेयांस गये शिवथान ।
कूट तनो दर्शनफल सुन्यो, कोड़ि उपास जिनेश्वर भन्यो ॥११॥
कूट सुवीर परम सुखदाय, विमल जिनेश जहाँ शिव पाय ।
मन वच दरश करै जो कोय, कोटि उपास तनो फल होय ॥१२॥
कूट स्वयम्भू सुभग सुनाम, गये अनन्त अमरपुर धाम ।
यही कूट को दरशन करै, कोटि उपास तनो फल धरै ||१३||
है सुदत्तवर कूट महान, जहँतै धर्मनाथ निरवान ।
परम विशाल कूट है सोय, कोटि उपास दरश फल होय ||१४||
कूट प्रभास परम शुभ कह्यो, शान्तिनाथ जहँतैं शिव लह्यो ।
कूट तनो दरशन है सोय, एक कोड़ि प्रोषधफल होय ॥१५॥
परम ज्ञानधर है शुभकूट, शिवपुर कुन्थु गये अघ छूट।
जाको पूजैं जे कर जोड़ि, फल उपवास कह्यो इक कोड़ि ||१६||
नाटककूट महाशुभ जान, जहँतै शिवपुर अर भगवान ।
दरशन करें कूट को जोय, छ्यानव कोटि वासफल होय ||१७||
सम्बलकूट मल्लि जिनराज, जहँतैं मोक्ष गये शुभ काज ।
कूट दरशफल कह्यो जिनेश, एक कोड़ि प्रोषध शुभ वेश ।।१८।।
निर्जर कूट को सुखदाय, मुनिसुव्रत जहँतैं शिव जाय ।
कूट तनो अब दरशन सोय, एक कोड़ि प्रोषध फल होय ||१९||
कूट मित्रधर तैं नमि मुक्त, पूजत पाय सुरासुरयुक्त ।
कूट तनो फल है सुखकन्द, कोटि उपास कह्यो जिनचन्द||२०||
श्रीप्रभु पार्श्वनाथ जिनराज, चहुँगति तैं छूटे महाराज ।
सुवरणभद्र कूट को नाम, तासों मोक्ष गये सुखधाम ||२१||
तीन लोक हितकरण अनूप, वन्दत ताहि सुरासुर भूप ।
चिन्तामणि सुरवृक्ष समान, ऋद्धि-सिद्धि मंगल सुखदान॥२२॥
नवनिधि चित्रावेल समान, जातै सुक्ख अनूपम जान।
पारस और काम सुरधेनु नानाविध आनन्द को देन॥२३॥
व्याधि विकार जाहिं सब भाज, मनचीते पूरे है काज।
औषधि जग में अवर न कोय, भवदधि रोग विनाशक सोय॥२४॥
निर्मल परम थान उत्कृष्ट, वन्दत पाप भजै अरु दुष्ट|
जो नर ध्यावत पुण्य कमाय, जश गावत सब कर्म नशाय||२५||
कदैं अनादिकाल के पाप, भजै सकल छिन में सन्ताप।
नरपति इन्द्र फणेन्द्र जु सबै, और खगेन्द्र मृगेन्द्र जु नवै॥२६॥
नित सुर-सुरी करें उच्चार, नाचत गावत विविध प्रकार ।
बहुविधि भक्ति करें मन लाय, विविध प्रकार वादित्र बजाय ||२७||
दृम-दृम दृमता बजै मृदंग, घन घन घण्ट बजै मुहचंग।
झुनझुन झुन-झुन झुनिया झुनै, सर सर सर सारंगी धुनै ॥२८॥
मुरली बीन बजै धुनि मिष्ट, पटहा तूर सुरान्वित पुष्ट ।
सब सुरगण थुति गावत सार, सुरगण नाचत बहुत प्रकार ॥२९॥
झन नन नन ना नूपुर वान, तन नन नन ना तोरत तान।
ताथेइ थेईथेईथेई कर चाल, सुर नाचत नावत निज भाल ||३०||
नाचत गावत नाना रंग, लेत जहाँ सुर आनन्द संग।
नित-प्रति सुर जहँ वन्दन जाय, नाना विधि के मंगल गाय ||३१||
अनहद धुनि की मोद जु होय, प्रापति वृष की अति ही होय ।
तातैं हमको सुख दे सोय, गिरवर वन्दों कर धरि दोय ॥३२॥
मारुत मन्द सुगन्ध चलेय, गन्धोदक जहँ नित वर्षेय।
जिय को जाति विरोध न होय, गिरिवर वन्दों कर धरि दोय ||३३||
ज्ञान चरन तप साधन सोय, निज अनुभव को ध्यान जु होय।
शिवमन्दिर को द्वारो सोय, गिरिवर वन्दों कर धरि दोय ||३४||
जो भवि वन्दै एकहि बार, नरक निगोद पशू गति टार।
सुर शिवपद को पावै सोय, गिरिवर वन्दों कर धरि दोय ॥३५॥
जाकी महिमा अगम अपार, गणधर कहत न पावै पार।
तुच्छ-बुद्धि मैं मति कर हीन, कही भक्तिवश केवल लीन ||३६||
घत्ता
श्रीसिधखेतं, अति सुख देतं, शीघ्रहि भवदधि पार करं।
अरिकर्म विनाशन, शिवसुख भासन, जय गिरिवर जगतार वरं ||३७||
ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
शिखर सु पूजै जो सदा, मन-वचन्तन हरषाय।
‘दास जवाहर’ यों कही, सो शिवपुर को जाय।।
इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
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