तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ का जीवन परिचय
शांतिनाथ(Shantinath) का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन हुआ था। तब भरणी नक्षत्र था। उनके पिता का नाम विश्वसेन था, जो हस्तिनापुर के राजा थे और माता का नाम महारानी ऐरा था। जैन ग्रंथो में शांतिनाथ को कामदेव जैसा स्वरुपवान बताया गया है। पिता के बाद शांतिनाथ हस्तिनापुर के राजा बने। जैन ग्रन्थो के अनुसार उनकी ९६ हजार रानियां थीं।
भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कान्ति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया। इस तरह भगवान के जब कुमार काल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये, तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया।
इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गईं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, सेनापति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और कन्या, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं।
चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत् दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शान्तिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे, वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है ? इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चामरों को ढुराया करते थे।
केवल ज्ञान की प्राप्ति
भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-भगवान शान्तिनाथ सहस्राम्र वन में नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे पर्यंकासन से स्थित हो गये और पौष कृष्ण दशमी के दिन अन्तर्मुहूर्त में दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का नाश कर बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का सर्वथा अभाव करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञान से विभूषित हो गये और उन्हें एक समय में ही सम्पूर्ण लोकालोक स्पष्ट दीखने लगा।
पहले भगवान ने चक्ररत्न से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर साम्राज्य पद प्राप्त किया था, अब भगवान ने ध्यानचक्र से विश्व में एकछत्र राज्य करने वाले मोहराज को जीतकर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी। समवसरण का संक्षिप्त वर्णन-यह समवसरण पृथ्वीतल से पाँच हजार धनुष ऊँचा था, इस पृथ्वीतल से एक हाथ ऊँचाई से ही इसकी सीढ़ियाँ प्रारंभ हो गयी थीं। ये सीढ़ियाँ एक-एक हाथ की थीं और बीस हजार प्रमाण थीं। यह समवसरण गोलाकार रहता है।
भगवान शान्तिनाथ का इतिहास
- भगवान का चिन्ह – उनका चिन्ह हिरण है।
- जन्म स्थान – हस्तिनापुर
- जन्म कल्याणक – ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी
- केवल ज्ञान स्थान – पौष शुक्ला दशमी, हस्तिनापुर
- दीक्षा स्थान – हस्तिनापुर
- पिता – विश्वसेन
- माता – अचिरा देवी
- देहवर्ण – तप्त स्वर्ण सदृश
- मोक्ष – ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, सम्मेद शिखर पर्वत
- भगवान का वर्ण – क्षत्रिय (इश्वाकू वंश)
- लंबाई/ ऊंचाई- ४० धनुष (१२० मीटर)
- आयु – ७,००,००० वर्ष
- वृक्ष – नंदी वृक्ष
- यक्ष – गरुड़
- यक्षिणी – निर्वाणी
- प्रथम गणधर – चक्रयुध स्वामी
- गणधरों की संख्या – 36
🙏 शान्तिनाथ का निर्वाण
भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन:-पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रकट किया, वही आज तक अखण्डरूप से बाधारहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्यगुरू श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो १५ तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था, वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।’
जिनके शरीर की ऊँचाई एक सौ आठ हाथ है, जो पंचम चक्रवर्ती हैं और कामदेव पद के धारी है, जिनके हरिण का चिन्ह है, जो भादों वदी सप्तमी को माता के गर्भ में आये, ज्येष्ठ वदी चौदस को जन्म लिया और ज्येष्ठ वदी चौदस को ही दीक्षा ग्रहण किया, पौष शुक्ल दशमी के दिन केवलज्ञानी हुए पुन: ज्येष्ठ वदी चौदस को ही मुक्तिधाम को प्राप्त हुए, ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें।
वैराग्य आने पर इन्होने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को दीक्षा प्राप्त की। बारह माह की छ्दमस्थ अवस्था की साधना से शांतिनाथ ने पौष शुक्ल नवमी को ‘कैवल्य’ प्राप्त किया। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सम्मेद शिखर पर भगवान शान्तिनाथ ने पार्थिव शरीर का त्याग किया था।
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