श्री गौतम गणधर
जय जय इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी मुनिवर जय जय ।
तीर्थंकर श्री महावीर के प्रथम मुख्य गणधर जय जय ॥
द्वादशाङ्ग श्रुत पूर्ण ज्ञानधारी गौतम स्वामी जय जय ।
वीर प्रभु की दिव्यध्वनि जिनवाणी को सुन हुए अभय ॥
ऋद्धि सिद्धि मङ्गल के दाता मोक्ष प्रदाता गणधर देव ।
मङ्गलमय शिव पथ पर चलकर मैं श्री सिद्ध बनूँ स्वयमेव ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
मैं मिथ्यात्व नष्ट करने को निर्मल जल की धार करूँ ।
सम्यक्दर्शन पाऊँ जन्म-मरण क्षय कर भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम्. नि.स्वाहा ।
पञ्च पाप अविरति को त्यागूँ शीतल चन्दन चरण धरूँ।
भवआताप नाश करके प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं. नि. स्वाहा ।
पञ्च प्रमाद नष्ट करने को उज्जवल अक्षत भेंट करूँ।
अक्षय पद की प्राप्ति हेतु प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतम् नि. स्वाहा ।
चार कषाय अभाव हेतु मैं पुष्प मनोरम भेंट करूँ ।
कामवाण विध्वंस करूँ प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् नि. स्वाहा।
मन वच काया योग सर्व हरने को प्रभु नैवेद्य धरूँ ।
क्षुधा व्याधि का नाम मिटाऊँ मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् नि. स्वाहा ।
सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने को अन्तर दीप प्रकाश करूँ ।
चिर अज्ञान तिमिर को नाशँ मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् नि. स्वाहा ।
मैं सम्यक्चारित्र ग्रहण कर अन्तर तप की धूप वरूँ ।
अष्ट कर्म विध्वंस करूँ प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अष्टकर्मविनाशनाय धूपम् नि. स्वाहा।
रत्नत्रय का परम मोक्ष फल पाने को फल भेंट करूँ।
शुद्ध स्वपद निर्वाण प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् नि. स्वाहा ।
जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ्य चरणों में सविनय भेंट करूँ।
पद अनर्घ्य सिद्धत्व प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरु ।।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
श्रावण कृष्ण एकम के दिन समवशरण में तुम आए ।
मानस्तम्भ देखते ही तो मान मोह अघ गल पाए ॥
महावीर के दर्शन करते ही मिथ्यात्व हुआ चकचूर ।
रत्नत्रय पाते ही दिव्यध्वनि का लाभ लिया भरपूर ॥
ॐ ह्रीं श्री दिव्यध्वनिप्राप्ताय गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को कर्म घातिया करके क्षय ।
सायंकाल समय में पाई केवलज्ञान लक्ष्मी जय ॥
ज्ञानावरण दर्शनावरणी मोहनीय का करके अंत।
अंतराय का सर्वनाश कर तुमने पाया पद भगवंत ॥
ॐ ह्रीं श्री केवलज्ञानप्राप्ताय गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा।
विचरण करके दुखी जगत के जीवों का कल्याण किया।
अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का अवसान किया ॥
देव बानवे वर्ष अवस्था में तुमने निर्वाण लिया।
क्षेत्र गुणावा करके पावन सिद्ध स्वरूप महान लिया ॥
ॐ ह्रीं श्री मोक्षपदप्राप्ताय गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा।
जयमाला
मगध देश के गौतमपुर वासी वसु भूति ब्राह्मण पुत्र ।
माँ पृथ्वी के लाल लाड़ले इन्द्रभूति तुम ज्येष्ठ सुपुत्र ॥
अग्निभूति अरु वायुभूति लघु भ्राता द्वय उत्तम विद्वान ।
शिष्य पाँच सौ साथ आपके चौदह विद्या ज्ञान निधान ॥
शुभ बैसाख शुक्ल दशमी को हुआ वीर को केवलज्ञान ।
समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ॥
बारह सभा बनी अति सुन्दर गन्धकुटी के बीच प्रधान ।
अंतरीक्ष में महावीर प्रभु बैठे पद्मासन निज ध्यान ॥
छियासठ दिन हो गए दिव्यध्वनि खिरी नहीं प्रभु की यह ज्ञान ।
अवधिज्ञान से लखा इन्द्र ने “गणधर की है कमी प्रधान”॥
इन्द्रभूति गौतम पहले गणधर होंगे यह जान लिया।
वृद्ध ब्राह्मण वेश बना, गौतम के गृह प्रस्थान किया ।
पहुँच इन्द्र ने नमस्कार कर किया निवेदन विनयमयी ।
मेरे गुरु श्लोक सुनाकर, मौन हो गए ज्ञानमयी ॥
अर्थ, भाव वे बता न पाए वही जानने आया हूँ।
आप श्रेष्ठ विद्वान् जगत में शरण आपकी आया हूँ।
इन्द्रभूति गौतम श्लोक श्रवण कर मन में चकराए।
झूठा अर्थ बताने के भी भाव नहीं उर में आए ॥
मन में सोचा तीन काल, छः द्रव्य, जीव, षट् लेश्या क्या?
नव पदार्थ, पंचास्तिकाय, गति, समिति, ज्ञान, व्रत, चारित क्या?
बोले गुरू के पास चलो मैं वहीं अर्थ बतलाऊँगा।
अगर हुआ तो शास्त्रार्थ कर उन पर भी जय पाऊँगा ॥
अति हर्षित हो इन्द्र हृदय में बोला स्वामी अभी चलें।
शंकाओं का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें ॥
अग्निभूति अरू वायुभूति दोनों भ्राता संग लिए जभी।
शिष्य पांचसौ संग ले गौतम साभियान चल दिए तभी ॥
समवशरण की सीमा में जाते ही हुआ गलित अभिमान ।
प्रभु दर्शन करते ही पाया सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान ॥
तत्क्षरण सम्यक्चारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया।
अष्ट ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मन:पर्यय छाया ॥
खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परम हर्ष उर में आया।
कर्म नाश कर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया ॥
ओंकार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली।
द्वादशांग वाणी तुमने अंतर्मुहूर्त में रच डाली ॥
दोनों भ्राता शिष्य पांचसौ ने मिथ्यात तभी हरकर ।
हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भ्रात हुए गणधर ॥
राजगृही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मंगलमय ।
महावीर संदेश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय ॥
इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त महान ।
श्री सुधर्म, माण्डव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्य अति ही विद्वान ॥
अचल और मेदार्य प्रभास यही ग्यारह गणधर गुणवान ।
महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान ॥
छह-छह घड़ी दिव्य ध्वनि खिरती चार समय नित मंगलमय ।
वस्तुतत्त्व उपदेश प्राप्त कर भव्य जीव होते निजमय ॥
तीस वर्ष रह समवशरण में गूंथा श्री जिनवाणी को ।
देश-देश में कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को ॥
कार्तिक कृष्ण अमावस प्रातः महावीर निर्वाण हुआ ।
संध्याकाल तुम्हें भी पावापुर में केवलज्ञान हुआ ॥
ज्ञान लक्ष्मी तुमने पाई और वीर प्रभु ने निर्वाण ।
दीपमालिका पर्व विश्व में तभी हुआ प्रारम्भ महान ॥
आयु पूर्ण जब हुई आपकी योग नाश निर्वाण लिया।
धन्य हो गया क्षेत्र गुणावा देवों ने जयगान किया।
आज तुम्हारे चरण कमल के दर्शन पाकर हर्षाया।
रोम-रोम पुलकित है मेरे भव का अंत निकट आया ॥
मुझको भी प्रजा छैनी दो मैं निज पर में भेद करूँ।
भेदज्ञान की महाशक्ति से दुखदायी भव खेद हरूँ ॥
पद सिद्धत्व प्राप्त करके मैं पास तुम्हारे आ जाऊँ ।
तुम समान बन शिव पद पाकर सदा-सदा को मुस्काऊँ ॥
जय-जय गौतम गणधर स्वामी अभिरामी अंतरयामी ।
पाप पुण्य पर भाव विनाशी मुक्ति निवासी सुखधामी ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महाअर्घ्यं नि. स्वाहा ।
गौतम स्वामी के वचन भाव सहित उर धार ।
मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
(इत्याशीर्वादः)
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