सखी छन्द
अपराजित तज भू आये, मिथिलापुर जन्म लहाये।
पितु कुम्भ प्रजावती माता, जिनका यश सब जग गाता॥
प्रभु मल्लिनाथ जिन आते, माता के गर्भ समाते।
हम पूजन करने आये, वसु द्रव्य हाथ में लाये॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
जल बाह्य मलिनता धोता, पूजन जल अघ मल धोता।
जिन पद में नीर चढ़ाते, प्रभु मल्लिनाथ को ध्याते॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन तन ताप हटाता, पूजन से मन सुख पाता।
जिन पद में गन्ध चढ़ाऊँ, जिन मल्लिनाथ को ध्याऊँ॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तन्दुल नेत्रों को प्यारे, पूजन में हों मनहारे।
जिन पद में भव्य चढ़ाते, अक्षय सुख को पा जाते॥
ओं ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
तरु पुष्प घ्राण प्रिय होते, मन के संयम को खोते।
मन का ही सुमन चढ़ाऊँ, जिन मल्लिनाथ को ध्याऊँ॥
ओं ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जो इष्ट गरिष्ठ ना खाते, जिन पद में तजें चढ़ाते।
वे क्षुधा दोष को नाशें, शिव सुख का मार्ग प्रकाशे॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह दीप तिमिर हर लाये, पूजन में ज्ञान जगाये।
कैवल्य ज्योति प्रभु पाये, हम मल्लिनाथ गुण गाये॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टांगी धूप चढ़ाऊँ, प्रभु पद में गुण महकाऊँ।
सम्यक्त्व आदि गुण पाऊँ, मैं मल्लि जिनेश्वर ध्याऊँ॥
ओं ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम उत्तम फल खाये, नहिं जिन पद कभी चढ़ाये।
सो विधि फल विविध सताये, दुख हरने जिन पद आये॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मूल्य पदार्थ चढ़ाते, वे अनर्घ पद पा जाते।
मैं मल्लिनाथ जिन ध्याऊँ, फिर भव में कभी न आऊँ ॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ- दोहा
चैत्र शुक्ल एकम गरभ, सुर नर रहे मनाय।
मल्लिनाथ का अवतरण, सुनकर जग हर्षाय॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लप्रतिपदायां गर्भकल्याणमण्डित श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्ध।
मगसिर सित एकादशी, जन्म महोत्सव जान।
सुरपति सुरगिरि पे करे, मल्लिनाथ का स्नान॥
ओं ह्रीं मार्गशीर्षसितएकादश्यां जन्मकल्याणमण्डितश्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
मगसिर सित एकादशी, मल्लिनाथ तप धार।
नन्दसेन नृप ने दिया, गाय क्षीर आहार॥
ओं ह्रीं मार्गशीर्षसितएकादश्यां तपःकल्याणमण्डित श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्ध।
मगसिर सित एकादशी, कर्म घातिया नाश।
केवलज्ञानी बन करें, प्रभु शिव मार्ग प्रकाश॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षसितएकादश्यां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
फाल्गुन शुक्ला पंचमी, अघाति विधि कर हान।
सम्मेदाचल से बने, सिद्ध शुद्ध भगवान॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लपंचम्यां मोक्षकल्याणमण्डितश्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
वर्ष सहस्त्र करोड़ गये, अरजिन शिव के बाद।
मल्लिनाथ जन्मे तभी, जग ने तजा विवाद॥
विद्याब्धि छन्द – तर्ज-हे दीन बन्धु श्रीपति….. ।
परिणय के लिए नगर सजावट को देखते।
अपराजिता विमान पूर्व जन्म लेखते॥
फहरा रहीं ध्वजायें नेक द्वार तोरणी।
राँगोली बिछी मार्ग में शहनाई मोहनी॥
वैराग्य हुआ तो तजी नगरी सजी हुई।
संसार देह भोग से विरक्ति जो हुई॥
वैराग्य के समक्ष ब्याह शर्म खा गया।
लौकान्त देव संघ संस्तवन को आ गया
सुजयन्त पालकी पे बैठ वन को चल दिये।
पूरब दिशा में बैठ केशलुञ्च कर लिये॥
वस्त्रों को फेंक दश दिशा के वस्त्र धर लिये।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर ने दो उपवास कर लिये॥
नृप तीन सौ ने साथ ही संयम को धर लिया।
छह दिन तपों में लीन हो कैवल्य वर लिया॥
प्रभु केवली बने तो जगत पूज्य हो गये।
सु विशाख आदि गणधर अठ बीस हो गये॥
चालीस सहस सब मुनीश संघ में रहें।
दृग ज्ञान वृत्त तप धरें शिव सौख्य को लहें॥
पचपन हजार बन्धुसेना आदि आर्यिका।
श्रावक थे लाख तिगुन रही व्रती श्राविका॥
थे देव देविका असंख्य संख्य पशु रहे।
बारह सभा के बीच श्री अरिहंत जिन रहे॥
सम्मेद शिखर से गये प्रभु मोक्ष धाम को।
श्री मल्लिनाथ को करे मृदुमति प्रणाम को॥
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
कलश चरण में राजता, मल्लिनाथ पहचान।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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