जैन धर्म के अनुसार दीपावली विधि
अनादि अनंत काल से भरतक्षेत्र में अनंत चौबीसी के तीर्थंकर अनंत- अनंत काल से होते आए हैं, इसी क्रम में इस युग में भी ऋषभनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हुए। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के २५६ वर्ष साढ़े तीन माह के बाद अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर को कार्तिक सुदी अमावस्या को मोक्ष प्राप्त हुआ था तथा उनके प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम को अपराह्लिक काल में उसी दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी इसी के प्रतीक रूप में कार्तिक वदी अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जाता है।
विधि :- प्रातः काल सूर्योदय के समय स्नानादि करके पवित्र वस्त्र पहन कर जिनेन्द्र देव के मन्दिर में परिवार के साथ पहुँचकर जिनेन्द्र देव की वन्दना करनी चाहिए, तदुपरान्त थाली में अथवा मूलनायक की वेदी पर सोलह दीपक चार – चार बाती वाले जलाने चाहिए तथा भगवान महावीर स्वामी की पूजन, निर्वाण काण्ड पढने के पश्चात् महावीर स्वामी के मोक्ष कल्याणक का अर्ध बोलकर, निर्वाण लड्डू अर्ध सहित चढ़ाना चाहिए।
घर की दीपावली :- अपराह्न काल गोधूली बेला (सायं ४ से ७ बजे तक) में घर के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में अथवा घर के मुख्य कमरे में पूर्व की दीवार अथवा सुविधानुसार दीवार पर माण्डना स्वामी की तस्वीर रखनी चाहिए। अन्य देवी देवताओं (यथा सरस्वती, लक्ष्मी, गणेशजी आदि) के घर के मुखिया अथवा किसी अन्य सदसय को एवं सभी सदस्यों को शुद्ध धोती- दुपट्टा पहिनकर दीपमालिका के बायीं तरफ आसन लगाकर बैठना चाहिए तथा सामने वाली चौकी पर सोलह दीपक रखने चाहिये जो कि सोलह कारणभावना के प्रतीक है।
इन्हीं सोलह कारणभावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध भगवान महावीर स्वामी ने किया था । इसी के प्रतीक स्वरूप सोलह दीपक चार चार बातियों वाले जलाए जाते हैं। (१६x४ = ६४) यह ६४ का अंक चौसठ ऋद्धि का प्रतीक है। भगवान महावीर चौसठ ऋद्धियों से युक्त थे इन्हीं के प्रतीक स्वरूप यह चौसठ ज्योति जलायी जातीं हैं। इन सोलह दीपक की चौसठ बातियों में शुद्ध देशी घी का उपयोग करें। (घृत की अनुपलब्धि में यथायोग्य तेलादि का प्रयोग किया जा सकता है।) दीपकों पर सोलह भावना अंकित करनी चाहिए। इन्हें जलाने के पश्चात दीपावली पूजन, सरस्वती पूजन, चौसठ ऋद्धि अर्घ, धुले हुए अष्ट द्रव्य से चढ़ाना चाहिए। पूजन पूजन से पूर्व तिलक एवं मौलीबन्धन सभी को करना चाहिए।
दुकान का पूजन :- इसी प्रकार दुकान पर भी पूजन करना चाहिए अथवा लघुरूप में पंचपरमेष्ठी के प्रतीक रूप पाँच दीपक जलाकर पूजन करना चाहिए।
पूजन विसर्जन :- शांति पाठ एवं विसर्जन करके तदुपरान्त घर का एक व्यक्ति अथवा बारी बारी से भी व्यक्ति मुख्य दीपक को अखण्ड जलाते हुए रातभर णमोकार मंत्र जाप अथवा पाठ या भक्तामर आदि पाठ करते हुए शक्ति अनुसार रात्रि जागरण करें; यदि रात्रि जागरण न कर सके तो कम से कम मुख्य दीपक में घृत भरकर उसे जाली से ढँककर उसी स्थान पर रात जलने देना चाहिए। शेष दीपकों में से एक दीपक मन्दिर में भेज देना चाहिए; यदि निकट में कोई सम्बन्धी रहते हैं तो वहाँ भी दीपक भेजा जा सकता है। अथवा शेष दीपकों को घर के मुख्य दरवाजे पर एवं मुख्य मुख्य स्थानों पर रखा जा सकता हैं। मिष्ठान्न आदि का वितरण करना है तो पूजा समाप्ति के पश्चात् पूजन स्थल से थोड़ा दूर हटकर कर सकते हैं।
पूजा के पश्चात् पूजन निर्माल्य सामग्री पशु पक्षियों को अथवा मन्दिर के माली को दी जा सकती है।
चौबीस पत्तों की आम या आशापाल की वन्दनवार बनाकर दरवाजे के बाहर बांधनी चाहिए जो चौबीस तीर्थंकरों की प्रतीक है।
(समुच्च्य मंत्र – ॐ ह्रीं चतुःषष्टिऋद्धिभ्यो नमः)
घरों में दीपावली पूजन
निर्वाण लाडू चढ़ाने के दिन सांयकाल को श्रावकगण अपने अपने घरों में दीपावली पूजन करते हैं; दीपकों का मनोहर प्रकाश करते हैं। श्री जिन मन्दिरजी में व अपनी दुकानों पर दीपकों को सजाते हैं और मुदित होते हैं।
नोट :- दीपावली के दिन पटाखे, अनार बिलकुल न छुड़ावें। इससे लाखों जीवों का घात होता है, पर्यावरण दूषित होता है। स्वयं को भी हानि हो जाती है और भारी पाप का बन्ध होता है। अतः अपने बच्चों को इस बुरी आदत से रोकें।
सामग्री :- अष्ट द्रव्य की थाली, दीपक, मंगल कलश, सरसों, श्रीफल, जिनवाणी, २ चौकी, २ पाटे, रोली, घिसी हुई केसर |
विधि :- सायंकाल को उत्तम गोधूली बेला में अपने मकान या दुकान के पवित्र स्थान में पूर्व या उत्तर की तरफ मुंह करके पूजा प्रारम्भ करें।
एक पाटे पर चावल से स्वस्तिक बनाकर उस पर महावीर स्वामी का मनोहर फोटो, जिनवाणी, दाहिनी तरफ घी का दीपक, बायीं तरफ धूपदान, मध्य में मंगल कलश स्थापित करें।
एक पाटे पर अष्ट द्रव्य की थाली, दूसरे पाटे पर द्रव्य चढ़ाने के लिए खाली थाली में स्वस्तिक बनाएं।
पूजा – गृहस्थाचार्य या कुटुम्ब के मुखिया को स्नान कर धोती- दुपट्टा पहनकर पूजा करनी चाहिए। मुखिया के अभाव में घर के विशेष व्यक्ति को स्नान कर शुद्ध धोती दुपट्टा पहनाना चाहिए।
पूजन विधि
पूजन में बैठे हुए सभी सज्जनों का निम्न मंत्र बोलकर तिलक करें-
मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी।
मंगलम् कुन्दकुन्दाद्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम् ।।
इसके बाद निम्न मंत्र पढ़कर सभी जनों को शुद्धि के लिए थोड़े से जल के हल्के छींटे दें।
ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिर्णि अमृतं स्त्रावय स्त्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रावय द्रावय हं सं इवीं क्ष्वीं हं सः स्वाहा।
दीपक प्रज्जवलित करते हुए निम्न प्रकार उच्चारण करें-
ॐ ह्रीं अज्ञानतिमिरहरं दीपकं प्रज्जवलामि स्वाहा ।
।। श्री महावीरस्वामिने नमः।।
श्री लाभ श्री श्री शुभ
श्री श्री
श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री श्री
श्री ऋषभाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमगणधराय नमः ।
श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै नमः । श्री केवलज्ञानलक्ष्मीदेव्यै नमः ।
नगर मध्ये ……. शुभमिति….. वार….. सं…….. वीर निर्वाण सं………
ता………..माह……..सन्……… लग्न ……नक्षत्र ……
शुभ बेला में नवीन मुहूर्त किया।
नाम दुकान………………………
नाम बही………………………….
पूजा प्रारम्भ
श्री महावीर स्वामी के जयकार के साथ पूजन प्रारम्भ करें।
ॐ जय जय जय नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।।
ॐ ह्रीं अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः (पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि)
चत्तारि मंगलं अरहंत मंगलं सिद्ध मंगलं साहु मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगोत्तमा अरहंत लोगोत्तमा सिद्ध लोगोत्तमा साहु लोगोत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि अरहंत सरणं पव्वज्जामि सिद्ध सरणं पव्वज्जामि साहु सरणं पव्वज्जामि
केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा (पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि)
देवशास्त्र गुरु का अर्घ
जल परम उज्जवल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ ।
वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ।।
इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ ।
अरहंत श्रुत – सिद्धान्त गुरु – निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।।
वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजों परमपद, देव – शास्त्र – गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्यमान बीस तीर्थंकर का अर्घ
जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनिहू – तैं श्रुति पूरी न करी है ।
द्यानत सेवक जानके (हो) जगतें लेहु निकार,
सीमन्धर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार।
(श्री जिनराज हो भव तारण तरण जहाज ।।)
ॐ ह्रीं श्रीसीमन्धरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य०
चौबीसी का अर्घ
जल फल आठों शुचिसार ताको अर्घ करों,
तुमको अरपो भवतार, भवतरि मोक्ष वरों।
चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही,
पद जजत हरत भव फंद, पावत मोक्ष मही।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तचतुतर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महावीर स्वामी का अर्घ
जलफल वसु सजि हिम-थार, तन-मन-मोद धरों ।
गुण गाऊँ भव- दिध तार, पूजत पाप हरों ।।
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण – धीर सन्मति – दायक हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस्वती का अर्घ
जल चन्दन अक्षत फूल चरू, चत दीप धूत अति फल लावै।
पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर ‘द्यानत’ सुख पावै।
तीर्थंकर की ध्वनि गणधर ने सुनी अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई।
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गौतमस्वामी आदि का अर्घ
गौतमादिक सर्वे एकदश गणधरा, वर जिनके मुनि सहस्र चौदहवरा ।
नीर गंधाक्षतं पुष्प चरू दीपक, धूप फल अर्घ ले हम जजे महर्षिक ।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनस्य गौतमादि एकादशगणधरेभ्यः चतुर्दश-सहस्र मुनिवरेभ्यश्च अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इसके बाद शांति पाठ पढ़कर विसर्जन करें। परिवार के सभी जनों को तिलक लगायें। अन्न रहित मिष्ठान्न से सत्कार करें।
दुकान पर बही पूजन
पूजन करने से पूर्व अष्ट द्रव्य तैयार कर एक चौकी पर रख लें। दूसरी चौकी पर थाली में स्वस्तिक बनायें, मंगल कलश की स्थापना करें। गद्दी पर बहीखाता, कलम-दवात आदि रखें।
एक चौकी पर नई बही के अन्दर सीधे पृष्ठ पर ऊपर हल्दी या रोली के स्वस्तिक बनायें तथा श्री का पर्वताकार लेखन पीछे पृष्ठ ११४ पर दिये गये अनुसार करें।
जैन समाज में भी इस दिन बहीखाते बदलने की और नया कार्य प्रारम्भ करने की परम्परा चली आ रही है क्योंकि वह युग परिवर्तन का समय था इसलिए नई व्यवसथा के प्रारम्भ के योग्य यह समय माना गया।
श्री गौतम गणधर (गणपति)
जय जय इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी मुनिवर जय जय ।
तीर्थंकर श्री महावीर के प्रथम मुख्य गणधर जय जय ।।
द्वादशाङ्ग श्रुत पूर्ण ज्ञानधारी गौतम स्वामी जय जय ।
वीर प्रभु की दिव्यध्वनि जिनवाणी को सुन हुए अभय ।।
ऋद्धि सिद्धि मङ्गल के दाता मोक्ष प्रदाता गणधर देव ।
मङ्गलमय शिव पथ पर चलकर मैं भी सिद्ध बनूँ स्वयमेव ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
अष्टक
मैं मिथ्यात्व नष्ट करने को निर्मल जल की धार करूँ ।
सम्यक्दर्शन पाऊँ जन्म-मरण क्षय कर भव रोग हरु ।।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् नि. स्वाहा ।
पश्च पाप अविरति को त्यागूँ शीतल चन्दन चरण धरूँ ।
भवआताप नाश करके प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ।।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा ।
पश्च प्रमाद नष्ट करेन को उज्जवल अक्षत भेंट करूँ ।
अक्षय पद की प्राप्ति हेतु प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ।।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
चार कषाय अभाव हेतु मैं पुष्प मनोरम भेंट करूँ ।
कामबाण विध्वंस करूँ प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने कामबाणविनाशनाय पुष्पम् नि. स्वाहा ।
मन वच काया योग सर्व हरने को प्रभु नैवेद्य धरूँ
क्षुधा व्याधि का नाम मिटाऊँ मैं अनादि भव रोग हरूँ ।।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा ।
सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने को अन्तर दीप प्रकाश करूँ
चिर अज्ञान तिमिर को नाशँ मैं अनादि भव रोग हरूँ ।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा ।
मैं सम्यक् चारित्र ग्रहण कर अन्तर तप की धूप वरूँ ।
अष्ट कर्म विध्वंस करूँ प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा ।
रत्नत्रय का परम मोक्ष फल पाने को फल भेंट करूँ ।
शुद्ध स्वपद निर्वाण प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरु । ।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ्य चरणों में सविनय भेंट करूँ ।
पद अनर्घ्य सिद्धत्व प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरु ।।
गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन ।
देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा।
श्रावण कृष्ण एकम के दिन समवसरण में तुम आए ।
मानस्तम्भ देखते ही तो मान मोह अघ गल पाए ।।
महावीर के दर्शन करते ही मिथ्यात्व हुआ चकचूर ।
रत्नत्रय पाते ही दिव्यध्वनि का लाभ लिया भरपूर ।।
ॐ ह्रीं दिव्यध्वनिप्राप्ताय श्रीगौतमणधस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा।
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को कर्म घातिया करके क्षय ।
सायंकाल समय में पाई के वलज्ञान लक्ष्मी जय ।।
ज्ञानवरण दर्शनावरणी मोहनीय का करके अंत ।
अंतराय का सर्वनाश कर तुमने पाया पद भगवंत ।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीगौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
विचरण करके दुखी जगत के जीवों का कल्याण किया ।
अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का अवसान किया ।।
देव ! बानवे वर्ष अवस्था में तुमने निर्वाण लिया ।
क्षेत्र गुंणावा करके पावन सिद्ध स्वरूप महान लिया ।।
ॐ ह्रीं मोक्षपदप्राप्ताय श्रीगौतमणधस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
जयमाला
मगध देश के गौतमपुरवासी वसुभूति ब्राह्मण पुत्र।
मां पृथ्वी के लाल लाड़ले इन्द्रभूति तुम ज्येष्ठ सुपुत्र।।
अग्रिभूति अरु वायुभूति लघु भ्राता द्वय उत्तम विद्वान।
शिष्य पाँच सौ साथ आपके चौदह विद्या ज्ञान निधान ।।१॥
शुभ वैशाख शुक्ल दशमी को हुआ वीर को केवलज्ञान।
समवसरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान।।
बारह सभी बनी अति सुन्दर गन्धकुटी के बीच प्रधान।
अंतरीक्ष में महावीर प्रभु बैठे पद्मासन निज ध्यान ।।२।।
छियासठ दिन हो गए दिव्यध्वनि खिरी नहीं प्रभु की यह जान।
अवधिज्ञान से लखा इन्द्र ने “गणधर की है कमी प्रधान”॥
इन्द्रभूति गौतम पहले गणधर होंगे यह जान लिया।
वृद्ध ब्राह्मण वेश बना, गौतम के गृह प्रस्थान किया।।३।।
पहुँच इन्द्र ने नमस्कार कर किया निवेदन विनयमयी।
मेरे गुरु श्लोक सुनाकर, मौन हो गए ज्ञानमयी।।
अर्थ, भाव वे बता न पाए वही जानने आया हूँ।
आप श्रेष्ठ विद्वान् जगत में शरण आपकी आया हूँ।।४।।
इन्द्रभूति गौतम श्लोक श्रवण कर मन में चकराए।
झूठा अर्थ बताने के भी भाव नहीं उर में आए।।
मन में सोचा तीन काल, छः द्रव्य, जीव, षट् लेश्या क्या?
नवपदार्थ, पंचास्तिकाय, गति, समिति, ज्ञान, व्रत, चारित क्या?॥५॥
बोले गुरु के पास चलो मैं वहीं अर्थ बतलाऊँगा।
अगर हुआ तो शास्त्रर्थ कर उन पर भी जय पाऊँगा।।
अति हर्षित हो इन्द्र हृदय में बोला स्वामी अभी चलें।
शंकाओं का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें।।६॥
अग्निभूति अरु वायुभूति दोनों भ्राता संग लिए जभी।
शिष्य पांचसौ संग ले गौतम साभिमान चल दिए तभी।।
समवसरण की सीमा में जाते ही हुआ गलित अभिमान।
प्रभु दर्शन करते ही पाया सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान।।७।।
तत्क्षण सम्यक् चारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया।
अष्ट ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मन:पर्यय छाया।।
खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परम हर्ष उर में आया।
कर्म नाश कर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया।।८।।
ओंकार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली।
द्वादशांग वाणी तुमने अंतर्मुहुर्त्त में रच डाली।।
दोनों भ्राता शिष्य पांचसौ ने मिथ्यात तभी हरकर।
हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भ्रात हुए गणधर।।९।।
रागही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मंगलमय।
महावीर संदेश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय।।
इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त महान ।
श्री सुधर्म, माण्डव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्य अति ही विद्वान।।१०।।
अचल और मेदार्य प्रभास यही ग्यारह गणधर गुणवान।
महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान।।
छह-छह घड़ी दिव्य ध्वनि खिरती चार समय नित मंगलमय।
वस्तुतत्त्व उपदेश प्राप्त कर भव्य जीव होते निजमय।।११।।
तीस वर्ष रह समवसरण में गूंथा श्री जिनवाणी को।
देश – देश में कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को।।
कार्तिक कृष्ण अमावस प्रातः महावीर निर्वाण हुआ।
संध्याकाल तुम्हें भी पावापुर में केवलज्ञान हुआ।।१२।।
ज्ञान लक्ष्मी तुमने पाई और वीर प्रभुने निर्वाण|
दीपमालिका पर्व विश्व में तभी हुआ प्रारम्भ महान।।
आयु पूर्ण जब हुई आपकी योग नाश निर्वाण लिया।
धन्य हो गया क्षेत्र गुणावा देवों ने जयगान किया।।१३।।
आज तुम्हारे चरणकमल के दर्शन पाकर हर्षाया।
रोम रोम पुलकित है मेरे भव का अंत निकट आया।।
मुझको भी प्रज्ञा छैनी दो मैं निज पर में भेद करूँ।
भेदज्ञान की महाशक्ति से दुखदायी भवखेद हरूँ।।१४।।
पद सिद्धत्व प्राप्त करके मैं पास तुम्हारे आ जाऊँ।
तुम समान बन शिव पद पाकर सदा-सदा को मुस्काऊँ।।
जय जय गौतम गणधर स्वामी अभिरामी अंतरयामी।
पाप पुण्य परभाव विनाशी मुक्ति निवासी सुखधामी।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं नि. स्वाहा।
गौतम स्वामी के वचन, भाव सहित उर धार।
मन, वच, तन जो पूजते, वे होते भव पार।।
(इत्याशीर्वादः)
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Note
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