Acharya Shri Vidhya Sagar Ji Maharaj

कविश्री मल्ल

(छप्पय छन्द)

अंग-क्षमा जिन-धर्म तनों दृढ़-मूल बखानो |
सम्यक्-रतन संभाल हृदय में निश्चय जानो ||
तज मिथ्या-विषमूल और चित निर्मल ठानो |
जिनधर्मी सों प्रीति करो सब-पातक भानो ||
रत्नत्रय गह भविक-जन, जिन-आज्ञा सम चालिए |
निश्चय कर आराधना, कर्मराशि को जालिये ||
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र अवतर अवतर संवौषट्!(आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)।
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)।

नीर सुगन्ध सुहावनो, पदम-द्रह को लाय |
जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक्-रत्न लहाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री निशंकितांगाय नम:, निकांक्षितांगाय नम:, निर्विचिकित्सांगाय नम:, निर्मूढ़तायै नम:, उपगूहनांगाय नम:, स्थितिकरणांगाय नम:, वात्सल्यांगाय नम:, प्रभावनांगाय नम:, व्यंजनव्यंजिताय नम:,अर्थसमग्रयाय नम:, तदुभय- समग्रयाय नम:, कालाध्ययनाय नम:, उपध्यानोपन्हिताय नम:, विनयलब्धि -सहिताय नम:, गुरुवादापन्हवाय नम:, बहुमानोन्मानाय नम:, अहिंसाव्रताय नम:, सत्यव्रताय नम:, अचौर्यव्रताय नम:, ब्रह्मचर्यव्रताय नम:, अपरिग्रहव्रताय नम:, मनोगुप्त्यै नम:, वचनगुप्त्यै नम:, कायगुप्त्यै नम:, ईर्यासमित्यै नम:, भाषासमित्यै नम:, एषणासमित्यै नम:, आदाननिक्षेपणसमित्यै नम:, प्रतिष्ठापनासमित्यै नम: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

केसर चंदन लीजिये, संग-कपूर घसाय |
अलि पंकति आवत घनी, वास सुगंध सुहाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

शालि अखंडित लीजिए, कंचन-थाल भराय |
जिनपद पूजूं भाव सों, अक्षय पद को पाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगन्ध गुलाब |
श्रीजिन-चरण सरोज कूँ, पूज हरष चित-चाव ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

शक्कर घृत सुरभी तनों, व्यंजन षट्-रस-स्वाद |
जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार |
शोधित घृत कर पूजिये, मोह-तिमिर निरवार ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविध जान |
जिन-चरणन ढिंग खेइये, अष्ट-करम की हान ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

केला अम्ब अनार फल, नारिकेल ले दाख |
अग्र धरूं जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय ||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

जल-फल आदि मिलायके, अरघ करो हरषाय |
दु:ख-जलांजलि दीजिए, श्रीजिन होय सहाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय|
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रायोदशविध्-सम्यक्चारित्रोभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

जयमाला

(दोहा)

उनतिस-अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय |
मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ||१||

(चौपाई छन्द)
जैनधर्म में शंक न आने, सो नि:शंकित गुण चित ठाने |
जप तप का फल वाँछे नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माँहीं ||२||

पर को देखि गिलानि न आने, सो तीजा सम्यक् गुण ठाने |
आन देव को रंच न माने, सो निर्मूढ़ता गुण पहिचाने ||३||

पर को औगुण देख जु ढाँके, सो उपगूहन श्रीजिन भाखे |
जैनधर्म तें डिगता देखे, थापे बहुरि थितिकर लेखे ||४||

जिन-धर्मी सों प्रीति निबहिये, गऊ-बच्छावत् वच्छल कहिये |
ज्यों त्यों जैन-उद्योत बढ़ावे, सो प्रभावना-अंग कहावे ||५||

अष्ट-अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टि कहिये सोई |
अब गुण-आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ||६||

व्यंजन-अक्षर-सहित पढ़ीजे, व्यंजन-व्यंजित अंग कहीजे |
अर्थ-सहित शुध-शब्द उचारे, दूजा अर्थ-समग्रह धारे ||७||

तदुभय तीजा-अंग लखीजे, अक्षर-अर्थ-सहित जु पढ़ीजे |
चौथा कालाध्ययन विचारे, काल समय लखि सुमरण धारे ||८||

पंचम अंग उपधान बतावे, पाठ सहित तब बहु फल पावे |
षष्टम विनय सुलब्धि सुनीजे, वानी विनयसु पढ़ीजे ||९||

जापै पढ़ै न लौपै जाई, सप्तम अंग गुरुवाद कहाई |
गुरु की बहुत विनय जु करीजे, सो अष्टम-अंग धर सुख लीजे ||१०||

ये आठों अंग ज्ञान बढ़ावें, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावें |
अब आगे चारित्र सुनीजे, तेरह-विध धर शिवसुख लीजे ||११||

छहों काय की रक्षा करिए, सोई अहिंसा व्रत चित धरिए |
हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ||१२||

मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्य व्रत चित धरिये |
मन्मथ-भय मन रंच न आने, सो मुनि ब्रह्मचर्य-व्रत ठाने ||१३||

परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच-महाव्रत-धारक सोई |
ये पाँचों महाव्रत सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ||१४||

मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई |
वचन अलीक रंच नहिं भाखें, वचनगुप्ति सो मुनिवर राखें ||१५||

कायोत्सर्ग परीषह सहे हैं, ता मुनि कायगुप्ति जिन कहे हैं |
पंच समिति अब सुनिए भाई, अर्थ-सहित भाषे जिनराई ||१६||

हाथ-चार जब भूमि निहारें, तब मुनि ईर्या-मग पद धारें |
मिष्ट वचन मुख बोले सोई, भाषा-समिति तास मुनि होई ||१७||

भोजन छयालिस दूषण टारे, सो मुनि एषण-शुद्धि विचारे |
देख के पोथी लें रु धरे हैं, सो आदान-निक्षेपन वरे हैं ||१८||

मल-मूत्र एकांत जु डारें, परतिष्ठापन समिति संभारें |
यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधरन गहे हैं ||१९||

आठ-आठ तेरहविध जानो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र सु ठानो |
ता तें शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ||२०||

रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई |
चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा-पर्व हम उर में धारा ||२१||

(दोहा)

यह ‘क्षमावणी’-आरती, पढ़े-सुने जो कोय |
कहे ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति-श्रीफल होय ||२२||
ॐ ह्रीं निःशङ्किताङ्गाय निःकाङ्क्षिताङ्गाय निर्विचिकित्सताङ्गाय निर्मूढताङ्गाय उपगूहनाङ्गाय सुस्थितीकरणाङ्गाय वात्सल्याङ्गाय प्रभावनाङ्गाय सम्यग्दर्शनाय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

ॐ ह्रीं व्यञ्जनव्यञ्जिताय अर्थसमग्राय तदुभयसमग्राय कालाध्ययनाय उपधानोपहिताय विनयलब्धिप्रभावनाय गुर्वनिह्नवाय बहुमानोन्मानाय अष्टाङ्गसम्यग्ज्ञानाय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

ॐ ह्रीं अहिंसामहाव्रताय सत्यमहाव्रताय अचौर्यमहाव्रताय ब्रह्मचर्यमहाव्रताय अपरिग्रह महाव्रताय मनोगुप्तये वचनगुप्तये कायगुप्तये ईर्यासमितये भाषासमितये एषणासमितये आदाननिक्षेपणसमितये प्रतिष्ठापनसमितये त्रयोदशविध सम्यक्चारित्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

(सोरठा)
दोष न गहिये कोय, गुण-गण गहिये भावसों |
भूल-चूक जो होय, अर्थ-विचारि जु शोधिये ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।

*****

Note

Jinvani.in मे दिए गए सभी स्तोत्र, पुजाये और आरती जिनवाणी संग्रह के द्वारा लिखी गई है, यदि आप किसी प्रकार की त्रुटि या सुझाव देना चाहते है तो हमे Comment कर बता सकते है या फिर Swarn1508@gmail.com पर eMail के जरिए भी बता सकते है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here