भारत छन्द -लय-वीर हिमाचल तैं
प्राणत स्वर्ग तजो जिनराज, सु राजगृही प्रभु जन्म लियो है।
श्री सुखमित्र सुमित्र पिता, पद्मा जननी घर धन्य कियो है॥
हे मुनिसुव्रतनाथ जिनेश्वर !, है हृदयांगन देश हमारो।
वेग हरो मम पीर जरा मृति, देर करो नहिं शीघ्र पधारो॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
जिनगीतिका छन्द
सब जल पान से तृष्णा मिटी ना, नीर प्रभु पद में धरूँ।
जन्मादि रोगों की व्यथा को, आप चरणों में हरूँ॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सब चन्दन लगाया देह पर, परिताप नित बढ़ता गया।
प्रभु पाद में चन्दन रखा तो ताप नित घटता गया
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय सुखों की चाह में प्रभु, दुःख ही सहता रहा।
मिल जाये अक्षय सौख्य मुझको, बस यही कहता यहाँ॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष सब हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
जिनदेव के पद पंकजों को, भक्ति पुष्पों से भजूँ।
मन को रखूँ वश में सदा, दुष्काम को मन से तजूँ॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष सब हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
जड़ वस्तुओं में स्वाद खोजा, आत्म अमृत ना चखा।
अध्यात्म अमृत पान करने, जैन आगम को लखा॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष सब हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतज्ञान दीपक में अहित तज, आत्म हित पर हित करूँ।
श्रुतज्ञान दाता आप्त जिन की, दीप ले पूजन करूँ॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहादि कर्मों को प्रभो, ईंधन बनाया आपने।
सुरभित हुए हो अष्ट गुण से, भक्त महकें आप से॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष सब हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीतिस्वाहा।
सद्दृष्टि सम्यग्ज्ञान चारित, एकमय जब हो गये
तब आप जिन शुभ ध्यान फल से, जिन निरंजन हो गये॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष जब सब हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु द्रव्य चरणों में चढ़ाकर, अष्टमी वसुधा चहूँ ।
सुव्रत जिनेश्वर आप में मिल, आत्म सुख को नित लहूँ॥
तीर्थेश मुनिसुव्रत हमारे, दोष सब हर लीजिए।
तुम सम निरंजन बन सकूँ मैं, ध्यान मुझ पर दीजिए॥
ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ क्षमासखी छन्द
अलि श्रावण द्वितीया आयी, गरभागम मंगल लायी
माता पद्मा हरषायी, सब राजगृही सुख पायी
ओं ह्रीं श्रावणकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणमण्डित श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
वैशाख कृष्ण दशमी को जन्मे सुख हो अवनी को।
हरिवंश सुमित्र पिताजी, आंगन सुर टोली नाची॥
ओं ह्रीं वैशाखकृष्णदशम्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
प्रभु जन्म दिवस तपकारा, गज विराग चित अवधारा।
इक सहस नृपति तप धारन, नृप वृषभसेन गृह पारण॥
ओं ह्रीं वैशाखकृष्णदशम्यां तपकल्याणमण्डित श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
कृष्णा वैशाख नवम दिन, कैवल्य हुआ जग बोधन।
छद्मस्थ मास ग्यारह थे, उपदेश भव्य जन लहते॥
ओं ह्रीं वैशाखकृष्णनवम्यां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अर्घ।
फाल्गुन कृष्णा द्वादशि को, नमूँ सुव्रत आत्म वशी को।
इक सहस श्रमण निज ध्याते, सम्मेद शीश शिव पाते॥
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णद्वादश्यां मोक्षकल्याणमण्डितश्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
चौवन लाख बरस गये, मल्लिनाथ के बाद।
मुनिसुव्रत जिन जन्मते, मिटते सर्व विवाद॥
सन्मति पद्धरि छन्द
मुनिसुव्रत वन्दूँ बार बार, गणधर गाते महिमा अपार।
वर्षायुष जिनकी सहस तीस, तनु ऊँचाई थी धनुष बीस॥
तनु मोर कण्ठ के रँग समान, लक्षण सहस्र वसु शोभमान।
पन शत सहस्त्र सत वर्ष काल, सुकुमार काल फिर राज्यभार॥
पन्द्रह हजार का वर्ष काल, राजा बन वरता था सुकाल।
खाना पीना तज गज उदास, लख ज्ञान लगाया अवधि नाथ॥
नृप को था उच्च कुलाभिमान, फिर किया विवेक बिना कुदान।
सुकिमिच्छक दान दिया अपार, नहिं पात्र अपात्र किया विचार||
इस फल से बनता नृपति नाग, भव संस्मृति से जागा विराग।
तब गज सद्दृष्टि बना महान, श्रावक व्रत धरता ज्ञानवान॥
यह गज की स्थिति लख सुव्रत ईश, परिग्रह त्यागे बनते मुनीश।
युवराज विजय को दिया राज, तप लक्ष्मी से मिलता स्वराज॥
प्रभु बैठ पालकी कर विहार, पहुँचे जहाँ नील अरण्य द्वार।
इक सहस नृपति सह तप सुधार, करते सब मुनि निज में विहार॥
द्वादश गणधर थे मल्लि आदि, काटे नित मुनिवर अघ अनादि।
सातों विध मुनि थे तिस हजार, सब वीतराग मुनि थे उदार॥
श्री क्षान्ति पुष्पदन्ता प्रमुख्य, सब थीं पच्चास हजार संख्य
श्रावक थे सब इक लख प्रमाण, थी त्रिगुण श्राविकायें महान॥
द्वादश गण को उपदेश दान करके पहुँचे सम्मेद थान।
इक सहस श्रमण सह धरा योग, मासान्त काल में बन अयोग॥
मुनिसुव्रत जिन शिव थान पाय, प्रभु चरणों में मृदु शीश नाय।
प्रभु चउ अघाति विधि कर विनाश, कर लिया आतमा का विकास॥
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपदप्राप्तये पूर्णाचं निर्वपामीति स्वाहा।
कछुआ पद में शोभता, मुनिसुव्रत पहचान।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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