Dev Shastra Guru Pooja

ज्ञानोदय छन्द

धरणी नृप गृह जन्म लिया है, मात सुसीमा हरषाती।
ऊर्ध्व उच्च ग्रैवेयक से प्रभु, आते अवनी गुण गाती॥
कौशाम्बी नगरी सुख पाती, इन्द्र महोत्सव करते हैं।
ऐसे वीतराग पद्मप्रभ, प्रभु को उर में धरते हैं॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।

जन्म जरा मृति पर जय पाके, वीतराग सर्वज्ञ बने।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, नीर धार दे रोग हनें॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।

पंच रूप संसार जीतकर, प्रभु संसारातीत हुये।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, गन्ध चढ़ा भवभीत हुय॥
पद्म जिनेश छठे तीर्थंकर, कलियुग में अतिशय लाये।
जिनकी पूजा भक्ति भाव से, हम सब करके सुख पाये॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

इन्द्रिय सुख को त्याग आपने, सौख्य अतीन्द्रिय प्राप्त किया।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, अक्षत अर्पे भक्त जिया॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।

कामबाण को कर्मबाण को नष्ट किया निर्वाण लिया।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, पुष्प चढ़ा सम्मान किया॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

क्षुधा जीत सब दोष जीतकर, आप पद्म निर्दोष बने।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, चरु अर्पं क्षुध दोष हनें॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मोह और अज्ञान नाशकर, आप बने केवलज्ञानी।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, दीप धरूँ बनने ज्ञानी॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अष्ट कर्म की धूप जलायी, गुण समूह महकाया है।
ऐसे पद्म जिनेश पदों की, भक्त शरण में आया है॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

लौकिक फल की आशा के बिन, तप से मोक्ष सुफल पाया।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, श्रीफल लेकर मैं आया॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

अष्टकर्म से मुक्त आपने, अनर्घ पद को प्राप्त किया।
ऐसे पद्म जिनेश पदों में, अर्घ चढ़ा सुख प्राप्त किया॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक अर्घ
लय-तोटक की तरह….जय केवलभानु कला सदनं ……. ।

माघी कृष्णा छठ गर्भ लसे, पद्मप्रभ जिन माँ उदर बसे ।
प्रभु मात सुसीमा मोद धरे, जगती माता की गोद भरे ॥
ओं ह्रीं माघकृष्णाषष्ठ्यां गर्भकल्याणमण्डितपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घं ।

कार्तिक कलि तेरस सुखद भली, खिलती धरणी गृह पद्म कली ।
सुरपति सुरगिरि पे हवन करे, फिर पद्म जिनेश्वर नाम धरे ॥
ओं ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घं।

गज ने ज्यों तृण जल छोड़ दिया, फिर ध्यान लीन तन छोड़ दिया।
प्रभु ने उसके भव जान लिये, तब जन्म दिवस तप धार लिये ॥
ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लात्रयोदश्यां तपः कल्याणमण्डित श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घं ।

छह माह तपों में लीन हुये, फिर घाति कर्म सब क्षीण हुये।
चैत्री पूनम को ज्ञान दिया, जल उठा, लोक नभ जान लिया ॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लपूर्णिमायां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ ।

फाल्गुन कृष्णा की चौथ रही, तब घात अघाति शिवा सु लही।
सम्मेद शैल निर्वाण हुआ, मृदु जन्म मिला पद्मेश दुआ ॥
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्थ्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्धं ।

जयमाला (यशोगान)
(दोहा)

नब्बे सहस्र करोड़ दधि, गये सुमति जिन बाद।
तब जन्मे पद्मेश प्रभु, करने हित संवाद॥
पदमपुरादि जिनगेह में, शोभें पद्म जिनेश।
चउतिस अतिशय युक्त जिन, नमूँ सदा परमेश॥

ज्ञानोदय छन्द
तीस लाख पूरव आयुष थी, दो सौ पचास धनु ऊँचे।
पद्म चिन्ह तुम पद में अंकित, जिनकी शरण भव्य पहुँचे॥
इक दिन सुख से बैठे गृह में, तभी सुभग हाथी आया।
जिस पर करें सवारी प्रभुवर, सहस गजों में प्रिय भाया॥
अकस्मात् गज शिथिल हो गया, खाना पीना छोड़ दिया।
आँख बन्द कर लेटा फिर वह, देह छोड़ परलोक गया॥
मृत्यु अचानक देख पद्म ने, तन धन सब नश्वर जाने।
अवधिज्ञान से गज भव जाने, निज भव स्मृति से पहचाने॥
तत्त्व स्वरूप जानकर प्रभु ने इस संसृति को धिक्कारा।
बेला के उपवास साथ में, प्रभु ने दीक्षा को धारा॥
छह मासी तप बाद आपने, घाति कर्म को नष्ट किया।
केवलज्ञानी बने पद्मप्रभु, मोक्ष मार्ग प्रस्पष्ट किया॥
वज्र आदि इक सौ दश गणधर, तीन लाख सब मुनिवर थे।
केवलज्ञानी आदि सप्त विध, समवसरण में यतिवर थे॥
चार लाख विंशति सहस्र युत, रतिषेणादि प्रमुख आर्या।
तीन लाख श्रावक सुश्राविका, पाँच लाख व्रतिका नार्या॥
दे उपदेश शिखरजी पहुँचे, माह योग का रोध किया।
एक सहस्त्र श्रमण संघों सह, प्रभु ने निज घर शोध लिया॥
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

लाल कमल पद में लसे, पद्मप्रभ पहचान ।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान ॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥

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Note

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