Acharya shri Vidhyasagar ji maharaj

Samadhi Bhakti in Sanskrit – समाधी भक्ति संस्कृत

 “समाधि भक्ति” इसी गहन आध्यात्मिक अवस्था का वर्णन करती है, जहाँ भक्त और भगवान के बीच की दूरी मिट जाती है। यह मात्र पूजा-पाठ या स्तुति से कहीं बढ़कर है; यह दिव्य प्रेम में पूर्ण तल्लीनता की स्थिति है। संस्कृत के ये दो शब्द—समाधि और भक्ति—मिलकर एक ऐसे आध्यात्मिक अनुभव को परिभाषित करते हैं, जहाँ मन की सारी चंचलता थम जाती है और आत्मा अपने आराध्य में पूरी तरह लीन हो जाती है।

यह लेख आपको समाधि भक्ति के गूढ़ अर्थ, इसके आध्यात्मिक महत्व और विभिन्न भारतीय परंपराओं में इसकी अवधारणा से परिचित कराएगा। आइए, इस यात्रा पर चलें और जानें कि कैसे गहन भक्ति हमें परम शांति और आत्मिक मिलन की ओर ले जाती है।

Samadhi Bhakti Sanskrit

स्वात्माभिमुख-संवित्ति, लक्षणं श्रुत-चक्षुषा।
पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञान-चक्षुषा॥
शास्त्राभ्यासो, जिनपति-नुति: सङ्गति सर्वदार्यै:।
सद्वृत्तानां,गुणगण-कथा,दोषवादे च मौनम्॥ १॥

सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो भावना चात्मतत्त्वे।
संपद्यन्तां, मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्ग:॥ २॥

जैनमार्ग-रुचिरन्यमार्ग निर्वेगता, जिनगुण-स्तुतौ मति:।
निष्कलंक विमलोक्ति भावना: संभवन्तु मम जन्मजन्मनि॥ ३॥

गुरुमूले यति-निचिते, – चैत्यसिद्धान्त वार्धिसद्घोषे।
मम भवतु जन्मजन्मनि,सन्यसनसमन्वितं मरणम्॥ ४॥

जन्म जन्म कृतं पापं, जन्मकोटि समार्जितम्।
जन्म मृत्यु जरा मूलं, हन्यते जिनवन्दनात्॥ ५॥

आबाल्याज्जिनदेवदेव! भवत:, श्रीपादयो: सेवया,
सेवासक्त-विनेयकल्प-लतया,कालोऽद्यया-वद्गत:।
त्वां तस्या: फलमर्थये तदधुना, प्राणप्रयाणक्षणे,
त्वन्नाम-प्रतिबद्ध-वर्णपठने,कण्ठोऽस्त्व-कुण्ठो मम॥ ६॥

तवपादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम्।
तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद् यावन्निर्वाण-संप्राप्ति:॥ ७॥

एकापि समर्थेयं, जिनभक्ति र्दुर्गतिं निवारयितुम्।
पुण्यानि च पूरयितुं, दातुं मुक्तिश्रियं कृतिन:॥ ८॥

पञ्च अरिंजयणामे पञ्च य मदि-सायरे जिणे वंदे।
पञ्च जसोयरणामे, पञ्च य सीमंदरे वंदे॥ ९॥

रयणत्तयं च वन्दे, चउवीस जिणे च सव्वदा वन्दे।
पञ्चगुरूणां वन्दे, चारणचरणं सदा वन्दे॥ १०॥

अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म, – वाचकं परमेष्ठिन:।
सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वत: प्रणिदध्महे॥ ११॥

कर्माष्टक-विनिर्मुक्तं, मोक्षलक्ष्मी-निकेतनम्।
सम्यक्त्वादि गुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम्॥ १२॥

आकृष्टिं सुरसम्पदां विदधते, मुक्तिश्रियो वश्यता-,
मुच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम्।
स्तम्भं दुर्गमनं प्रति-प्रयततो, मोहस्य सम्मोहनम्,
पायात्पञ्च-नमस्क्रियाक्षरमयी,साराधना देवता॥ १३॥

अनन्तानन्त संसार, – संततिच्छेद-कारणम्।
जिनराज-पदाम्भोज, स्मरणं शरणं मम॥ १४॥

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।
तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर!॥ १५॥

नहित्राता नहित्राता नहित्राता जगत्त्रये।
वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति॥ १६॥

जिनेभक्ति-र्जिनेभक्ति-, र्जिनेभक्ति-र्दिने दिने।
सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे भवे॥ १७॥

याचेऽहं याचेऽहं, जिन! तव चरणारविन्दयोर्भक्तिम्।
याचेऽहं याचेऽहं, पुनरपि तामेव तामेव॥ १८॥

विघ्नौघा: प्रलयं यान्ति, शाकिनी-भूत पन्नगा:।
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥१९॥

इच्छामि भंते! समाहिभत्ति काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं, रयणत्तय-सरूवपरमप्पज्झाणलक्खणं समाहि-भत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाओ, सुगइ-गमणं समाहि-मरणं जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं।

Note

Jinvani.in मे दिए गए सभी Samadhi Bhakti in Sanskrit स्तोत्र, पुजाये और आरती जिनवाणी संग्रह के द्वारा लिखी गई है, यदि आप किसी प्रकार की त्रुटि या सुझाव देना चाहते है तो हमे Comment कर बता सकते है या फिर Swarn1508@gmail.com पर eMail के जरिए भी बता सकते है। 

sahi mutual fund kaise chune

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Scroll to Top