धर्म का श्रेष्ठ लक्षण आर्जव है। आर्जव का अर्थ सरलता है। मन-वचन-काय की कुटिलता का अभाव वह आर्जव है। कपट सभी अनर्थों का मूल है ; प्रीति तथा प्रतीति का नाश करने वाला है। कपटी में असत्य, छल,निर्दयता, विश्वासघात आदि सभी दोष रहते हैं। कपटी में गुण नहीं किन्तु समस्त दोष रहते हैं। मायाचारी यहाँ अपयश को पाकर फिर नरक-तिर्यंचादि गतियों में असंख्यातकाल तक परिभ्रमण करता है।मायाचार रहित आर्जवधर्म के धारक में सभी गुण रहते हैं।समस्त लोक की प्रीति तथा प्रतीति का पात्र होता है। परलोक में देवों द्वारा इंद्र-प्रतीन्द्र आदि होता है।अतः सरल परिणाम ही आत्मा का है।
अच्छी बातों को ही मन में सोचना चाहिए, वचनों से बोलना चाहिए तथा आचरण में लाना चाहिए। बुरे; असभ्य; दूसरों को हानि, दुख पहुंचाने वाले न तो विचार करना चाहिए, यदि विचार आ जाएं तो वचन में नहीं कहना चाहिए तथा वचनों में कदाचित आ भी जाए, तो आचरण में तो बिल्कुल भी नहीं लाना चाहिए।
जीवों को अपने तीनों योग (मन-वचन-काय) में एकता, समानता लाना योग्य है।””जिस प्रकार दर्पण सरल व स्वच्छ होता है, जैसा उसके सामने मुख (चेहरा) होता है, वैसा ही दिखाता है; वैसे ही हमें भी अपने मन-वचन-काय में समानता रखनी चाहिए।””तथा कपट से प्रीति (लगाव) अंगारे के समान है। जिसप्रकार अंगारे, ऊपर राख होने से ठंडे दिखते हैं, परंतु अंदर अग्नि होने के कारण छूने पर जला देते हैं; वैसे ही, कपट का भाव ऊपर से तो बहुत अच्छा दिखता है (ऐसा लगता है जैसे मैंने दूसरे को ठग लिया, बहुत अच्छा किया) परंतु वास्तविकता में ठग/कपटी स्वयं को ही ठग रहा है।” क्योंकि, कोई और ठगाया जाए अथवा नहीं, पाप कर्म का बंध होने से वह स्वयं ही ठगाया जा रहा है।