जय जिनेंद्र मित्रों आज हम बात करेंगे जैन धर्म में रक्षाबंधन के महत्व की, जैन धर्म में रक्षाबंधन का क्या महत्व है जैन धर्म में राखी क्यों मनाई जाती है? और क्या जैन धर्म में भी यह भाई के द्वारा बहन की रक्षा का पर्व यह भाई-बहन के रिश्ते तक ही सीमित है।
जैन धर्म में रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं? : त्याग और धर्म-रक्षा की कहानी
यह उस समय की बात है, जब उज्जैन नगरी में राजा श्री वर्मा का शासन था। उनके चार मंत्री थे – बलि, नमुचि, प्रह्लाद और बृहस्पति। ये मंत्री जैन धर्म से द्वेष रखते थे, जबकि राजा स्वयं एक सच्चे जैन श्रावक थे।
एक बार, आचार्य अकंपन के नेतृत्व में 700 जैन मुनियों का एक संघ उज्जैन के निकट वन में आकर ठहरा। जब आचार्य को मंत्रियों के द्वेष के बारे में पता चला, तो उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए सभी साधुओं को मौन व्रत रखने का आदेश दिया। नगर के लोग श्रद्धापूर्वक मुनियों के दर्शन के लिए आने लगे, जिससे मंत्रियों का क्रोध और बढ़ गया।
एक दिन, श्रुतकीर्ति नामक एक मुनि, जिन्हें मौन का आदेश नहीं मिला था, ने मंत्रियों को जैन धर्म की निंदा करते हुए सुना। उन्होंने शांतिपूर्वक शास्त्रार्थ में मंत्रियों को पराजित कर दिया। अपनी हार से अपमानित होकर, मंत्रियों ने रात में श्रुतकीर्ति मुनि की हत्या का प्रयास किया, लेकिन वन के देवता ने उन्हें स्तंभित (पत्थर की तरह जड़) कर दिया। सुबह राजा ने उन्हें देश निकाला दे दिया।
अपमानित मंत्री हस्तिनापुर पहुँचे, जहाँ राजा महापद्म के पुत्र राजा पद्मराय का शासन था। उन्होंने अपनी योग्यता से राजा का विश्वास जीत लिया और एक वरदान माँगने का अधिकार प्राप्त कर लिया।
कुछ समय बाद, वही 700 मुनियों का संघ विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुँचा। बदला लेने का यह सही मौका देखकर, मंत्रियों ने राजा पद्मराय से अपना वरदान माँगा – सात दिनों के लिए राज्य का अधिकार। वचन से बंधे राजा को राज्य सौंपना पड़ा। सत्ता हाथ में आते ही दुष्ट मंत्रियों ने मुनियों के शिविर के चारों ओर लकड़ियाँ इकट्ठी करवाईं और उसमें आग लगा दी। अपनी साधना में लीन सभी 700 मुनि शांत भाव से ध्यान करते रहे।
उसी समय, हस्तिनापुर से दूर एक अन्य नगर में विराजमान एक अवधिज्ञानी मुनि ने अपने ज्ञान से इस भयानक संकट को देख लिया। उन्होंने तुरंत एक ऐसे मुनि को सूचित किया जिन्हें आकाशगामिनी विद्या प्राप्त थी। वह मुनि उड़कर उस स्थान पर पहुँचे जहाँ मुनि विष्णु कुमार तपस्या कर रहे थे।
विष्णु कुमार राजा महापद्म के छोटे पुत्र थे, जो अपने भाई पद्मराय के राज्याभिषेक के बाद वैराग्य लेकर मुनि बन गए थे। कठोर तपस्या से उन्होंने ‘विक्रिया ऋद्धि’ नामक एक विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी, जिससे वे अपना रूप और आकार बदल सकते थे।
साधुओं पर हुए अत्याचार का समाचार सुनते ही मुनि विष्णु कुमार क्रोधित हो उठे। वे तुरंत हस्तिनापुर पहुँचे और एक वामन (बौने ब्राह्मण) का रूप धारण कर मंत्री बलि के दरबार में गए। उन्होंने बलि से दान में केवल ‘तीन पग धरती’ माँगी। अहंकार में डूबे बलि ने हँसते हुए यह तुच्छ दान स्वीकार कर लिया।
अगले ही पल, मुनि विष्णु कुमार ने अपनी विक्रिया ऋद्धि का प्रयोग किया। उन्होंने अपना शरीर इतना विशाल कर लिया कि एक पग में पूरी पृथ्वी और दूसरे पग में सारा ब्रह्मांड नाप लिया। जब उन्होंने पूछा, “तीसरा पग कहाँ रखूँ?” तो भयभीत बलि ने अपना सिर झुका दिया। विष्णु कुमार ने उसके सिर पर अपना पैर रखकर उसके अहंकार का नाश किया।
इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति से अग्नि को शांत किया और सभी 700 मुनियों की रक्षा की।
जिस दिन मुनियों की यह घोर विपत्ति टली, वह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। नगर के लोगों ने प्रसन्न होकर मुनियों को आहार में सेवइयां बनाकर खिलाईं और उनकी रक्षा के संकल्प के प्रतीक के रूप में एक-दूसरे को रक्षा-सूत्र (धागा) बाँधा।
तभी से जैन धर्म में यह दिन ‘रक्षाबंधन‘ पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह केवल भाई-बहन का पर्व नहीं, बल्कि धर्म, संतों, समाज और मानवता की रक्षा का संकल्प लेने का दिन है।
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