ज्ञानोदय छन्द
सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्व जिन, मध्यम ग्रीवक से आये ।
सुप्रतिष्ठ नृप पृथिवीसेना, नगर बनारस हरषाये
ऐसे वीतराग जिनवर की पूजन करने हम आये ।
मेरे उर के सिंहासन पर, आप विराजो मन भाये ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
आत्म तत्त्व का चिन्तन करके, जन्म मरण को जीत लिया।
तभी आपको नीर चढ़ाते, प्रभु सुपार्श्व जिन मीत जिया ॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निज जीवास्तिकाय को जाना, पर द्रव्यों से भिन्न भला ।
तभी सुपार्श्व जिनेश्वर भजते, लाये चन्दन सुशीतला ॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
मोती सम उज्ज्वल तन्दुल ले, सुपार्श्व जिन को पूज रहे।
अक्षय सुख पाने को भगवन्, जग में आप अदूज रहे ॥
ओं ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कामबाण से बिंधकर जग में, मैंने अगणित दुख पाये।
तब मन सुमन चढ़ाते प्रभु को काम भाव मम नश जाये ॥
ओं ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधा वेदनी हरने भगवन्, चरुवर तुम्हें चढ़ाते हैं।
क्षुधा विजेता श्री सुपार्श्व का, अनशन तप अपनाते हैं ॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप घृतदीप चढ़ाते, सम्यग्ज्ञानी बनना है।
श्री सुपार्श्व के उपदेशों से, मोह तिमिर को हनना है ॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्यान हुताशन में प्रभु तुमने, अष्ट कर्म ईंधन जारा।
शुद्ध धूप का प्रतीक लेके, भजूँ सुपारस सुखकारा ॥
ओं ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म फलों में समता रखकर, कर्म निर्जरा कर पाये।
ऐसे सुपार्श्व जिन के पद में, पक्व सरस फल ले आये ॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष मार्ग तुमने दर्शाया, प्रभु तुमको क्या भेंट करूँ ।
अर्घ चढ़ाकर कैसे तेरा, हे सुपार्श्व ऋण भार हरूँ ॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ
सखी छन्द
भादों सित षष्ठी आयी, गरभागम बेला लायी ।
छह माह गर्भ पूरब तैं, जनमत तक रत्न बरसते ॥
ओं ह्रीं भाद्रशुक्लषष्ठ्यां गर्भकल्याणमण्डित श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।
प्रभु ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशि को, जन्मे जिन निज मन वशि को ।
सुरगिरि पर हवन कराते, हरि ताण्डव नृत्य रचाते ॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
प्रभु ऋतु परिवर्तन ज्ञानी, नृप सहस साथ तप ठानी।
फिर भोगों को धिक्कारा, जनमत तिथि को तप धारा ॥
ओं ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां तपः कल्याणमण्डितश्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्थं ।
फाल्गुन असिता छठ आती, परिपूर्ण ज्ञान को लाती ।
धनपति ने सभा रचायी, उपदेश दिया जिनरायी ॥
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णषष्ठ्यां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्ध ।
प्रभु सम्मेदाचल आये, अन्तिम शुचि ध्यान लगाये ।
फाल्गुन कृष्णा सातें को, शिव मिला ध्यान ध्याते को ॥
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।
जयमाला (यशोगान)
सखी छन्द
प्रभु में वैराग्य समाया, तब लक्ष्मी जानी छाया ।
लौकान्तिक सुर भू आते, वैराग्य प्रशंसा गाते ॥1॥
मनोगती पालकी आयी, बेला कर दीक्षा भायी।
प्रभु सोमखेट में आते, माहेन्द्र नृपति पड़गाते ॥2॥
आहार भक्ति युत देते, मुनि तप करने को लेते।
नववर्ष तपस्या साधी, दो दिन अनशन निरबाधी ॥3॥
कैवल्य बोध जब पाया, हरि समवसरण रचवाया।
बल आदिक गणधर भाते, पंचान्नव संख्या गाते ॥4॥
त्रय लक्ष सर्व मुनिराजा, सबके जिनवर सरताजा ।
मीना प्रमुखा आर्या थी, लख त्रय सहस्र तीसा थीं ॥5॥
हे जिनवर सुपार्श्व स्वामी, मेटो दुख अन्तर्यामी ।
पूजा कर समाधि चाहूँ, मृदु हो शिव सुख अवगाहूँ ॥6॥
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
स्वस्तिक जिन पद में लसे, सुपार्श्व जिन पहचान ।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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