कविश्री रामचरित उपाध्याय
नित देव! मेरी आत्मा, धारण करे इस नेम को,
मैत्री रहे सब प्राणियों से, गुणी-जनों से प्रेम हो|
उन पर दया करती रहे, जो दु:ख-ग्राह-ग्रहीत हैं,
सम-भाव उन सबसे रहे, जो वृत्ति में विपरीत हैं ||१||
करके कृपा कुछ शक्ति ऐसी, दीजिए मुझमें प्रभो !
तलवार को ज्यों म्यान से, करते विलग हैं हे विभो !!
गतदोष आत्मा शक्तिशाली, है मिली मम-अंग से,
उसको विलग उस भाँति करने के लिये ऋजु-ढंग से ||२||
हे नाथ! मेरे चित्त में, समता सदा भरपूर हो,
सम्पूर्ण ममता की कुमति, मेरे हृदय से दूर हो|
वन में भवन में दु:ख में, सुख में नहीं कुछ भेद हो,
अरि-मित्र में मिलने-बिछड़ने, में न हर्ष न खेद हो ||३||
अतिशय-घनी तम-राशि को, दीपक हटाते हैं यथा,
दोनों कमल-पद आपके, अज्ञान-तम हरते तथा|
प्रतिबिम्ब-सम स्थिररूप वे, मेरे हृदय में लीन हों,
मुनिनाथ! कीलित-तुल्य वे, उर पर सदा आसीन हों ||४||
यदि एक-इन्द्रिय आदि देही, घूमते-फिरते मही,
जिनदेव! मेरी भूल से, पीड़ित हुए होवें कहीं|
टुकड़े हुए हों मल गये हों, चोट खाये हों कभी,
तो नाथ! वे दुष्टाचरण, मेरे बने झूठे सभी ||५||
सन्मुक्ति के सन्मार्ग से, प्रतिकूल-पथ मैंने लिया,
पंचेन्द्रियों चारों कषायों, में स्व-मन मैंने किया|
इस हेतु शुद्ध-चरित्र का, जो लोप मुझ से हो गया,
दुष्कर्म वह मिथ्यात्व को हो, प्राप्त प्रभु! करिए दया||६||
चारों कषायों से वचन-मन, काय से जो पाप है-
मुझसे हुआ, हे नाथ! वह, कारण हुआ भव-ताप है|
अब मारता हूँ मैं उसे, आलोचना-निन्दादि से,
ज्यों सकल-विष को वैद्यवर, है मारता मंत्रादि से ||७||
जिनदेव! शुद्ध-चारित्र का, मुझसे अतिक्रम जो हुआ,
अज्ञान और प्रमाद से व्रत, का व्यतिक्रम जो हुआ|
अतिचार और अनाचरण, जो-जो हुए मुझसे प्रभो|
सबकी मलिनता मेटने को, प्रतिक्रमण करता विभो ||८||
मन की विमलता नष्ट होने, को ‘अतिक्रम’ है कहा,
औ’ शीलचर्या के विलंघन, को ‘व्यतिक्रम’ है कहा|
हे नाथ! विषयों में लिपटने, को कहा अतिचार है,
आसक्त अतिशय-विषय में, रहना महाऽनाचार है ||९||
यदि अर्थ-मात्रा-वाक्य में, पद में पड़ी त्रुटि हो कहीं,
तो भूल से ही वह हुई, मैंने उसे जाना नहीं|
जिनदेव वाणी! तो क्षमा, उसको तुरत कर दीजिये,
मेरे हृदय में देवि! केवलज्ञान को भर दीजिये ||१०||
हे देवि! तेरी वंदना मैं, कर रहा हूँ इसलिये,
चिन्तामणि-सम है सभी, वरदान देने के लिए|
परिणाम-शुद्धि समाधि, मुझमें बोधि का संचार हो,
हो प्राप्ति स्वात्मा की तथा, शिवसौख्य की भव-पार हो ||११||
मुनिनायकों के वृंद जिसको, स्मरण करते हैं सदा,
जिसका सभी नर-अमरपति भी, स्तवन करते हैं सदा|
सच्छास्त्र वेद-पुराण जिसको, सर्वदा हैं गा रहे,
वह देव का भी देव बस, मेरे हृदय में आ रहे ||१२||
जो अंतरहित सुबोध-दर्शन, और सौख्य-स्वरूप है,
जो सब विकारों से रहित, जिससे अलग भवकूप है|
मिलता बिना न समाधि जो, परमात्म जिसका नाम है,
देवेश वर उर आ बसे, मेरा खुला हृद्धाम है ||१३||
जो काट देता है जगत् के, दु:ख-निर्मित जाल को,
जो देख लेता है जगत् की, भीतरी भी चाल को|
योगी जिसे हैं देख सकते, अंतरात्मा जो स्वयम्,
देवेश! वह मेरे हृदय-पुर, का निवासी हो स्वयम् ||१४||
कैवल्य के सन्मार्ग को, दिखला रहा है जो हमें,
जो जन्म के या मरण के, पड़ता न दु:ख-सन्दोह में|
अशरीर है त्रेलोक्यदर्शी, दूर है कुकलंक से,
देवेश वह आकर लगे, मेरे हृदय के अंक से ||१५||
अपना लिया है निखिल तनुधारी-निबह ने ही जिसे,
रागादि दोष-व्यूह भी, छू तक नहीं सकता जिसे|
जो ज्ञानमय है नित्य है, सर्वेन्द्रियों से हीन है,
जिनदेव देवेश्वर वही, मेरे हृदय में लीन है ||१६||
संसार की सब वस्तुओं में, ज्ञान जिसका व्याप्त है,
जो कर्म-बन्धन-हीन बुद्ध, विशुद्ध-सिद्धि प्राप्त है|
जो ध्यान करने से मिटा, देता सकल-कुविकार को,
देवेश वह शोभित करे, मेरे हृदय-आगार को ||१७||
तम-संघ जैसे सूर्य-किरणों, को न छू सकता कहीं,
उस भाँति कर्म-कलंक दोषाकर जिसे छूता नहीं|
जो है निरंजन वस्त्वपेक्षा, नित्य भी है, एक है,
उस आप्त-प्रभु की शरण मैं, हूँ प्राप्त जो कि अनेक है||१८||
यह दिवस-नायक लोक का, जिसमें कभी रहता नहीं,
त्रैलोक्य-भाषक-ज्ञान-रवि, पर है वहाँ रहता सही|
जो देव स्वात्मा में सदा, स्थिर-रूपता को प्राप्त है,
मैं हूँ उसी की शरण में, जो देववर है आप्त है||१९||
अवलोकने पर ज्ञान में, जिसके सकल-संसार ही-
है स्पष्ट दिखता एक से, है दूसरा मिलकर नहीं|
जो शुद्ध शिव है शांत भी है, नित्यता को प्राप्त है,
उसकी शरण को प्राप्त हूँ, जो देववर है आप्त है||२०||
वृक्षावलि जैसे अनल की, लपट से रहती नहीं,
त्यों शोक मन्मथ मान को, रहने दिया जिसने नहीं|
भय मोह नींद विषाद, चिन्ता भी न जिसको व्याप्त है,
उसकी शरण में हूँ गिरा, जो देववर है आप्त है ||२१||
विधिवत् शुभासन घास का, या भूमि का बनता नहीं,
चौकी शिला को ही शुभासन, मानती बुधता नहीं|
जिससे कषायें-इन्द्रियाँ, खटपट मचाती हैं नहीं,
आसन सुधीजन के लिये, है आत्मा निर्मल वही ||२२||
हे भद्र! आसन लोक-पूजा, संघ की संगति तथा,
ये सब समाधी के न साधन, वास्तविक में है प्रथा|
सम्पूर्ण बाहर-वासना को, इसलिये तू छोड़ दे,
अध्यात्म में तू हर घड़ी, होकर निरत रति जोड़ दे||२३||
जो बाहरी हैं वस्तुएँ, वे हैं नहीं मेरी कहीं,
उस भाँति हो सकता कहीं उनका कभी मैं भी नहीं|
यो समझ बाहयाडम्बरों को, छोड़ निश्चितरूप से,
हे भद्र! हो जा स्वस्थ तू, बच जाएगा भवकूप से ||२४||
निज को निजात्मा-मध्य में, ही सम्यगवलोकन करे,
तू दर्शन-प्रज्ञानमय है, शुद्ध से भी है परे|
एकाग्र जिसका चित्त है, तू सत्य उसको मानना|
चाहे कहीं भी हो समाधि-प्राप्त उसको जानना ||२५||
मेरी अकेली आत्मा, परिवर्तनों से हीन है,
अतिशय-विनिर्मल है सदा, सद्ज्ञान में ही लीन है |
जो अन्य सब हैं वस्तुएँ, वे ऊपरी ही हैं सभी,
निज-कर्म से उत्पन्न हैं, अविनाशिता क्यों हो कभी ||२६||
है एकता जब देह के भी, साथ में जिसकी नहीं,
पुत्रादिकों के साथ उसका, ऐक्य फिर क्यों हो कहीं |
जब अंग-भर से मनुज के, चमड़ा अलग हो जायगा,
तो रोंगटों का छिद्रगण, कैसे नहीं खो जायगा ||२७||
संसाररूपी गहन में है, जीव बहु-दु:ख भोगता,
वह बाहरी सब वस्तुओं, के साथ कर संयोगता |
यदि मुक्ति की है चाह तो, फिर जीवगण! सुन लीजिये,
मन से वचन से काय से, उसको अलग कर दीजिये ||२८||
देही! विकल्पित-जाल को, तू दूरकर दे शीघ्र ही,
संसार-वन में डोलने का, मुख्य-कारण है यही |
तू सर्वदा सबसे अलग, निज-आत्मा को देखना,
परमात्मा के तत्त्व में तू, लीन निज को लेखना ||२९||
पहले समय में आत्मा ने, कर्म हैं जैसे किए,
वैसे शुभाशुभ-फल यहाँ, पर इस समय उसने लिए |
यदि दूसरे के कर्म का, फल जीव को हो जाय तो,
हे जीवगण! फिर सफलता, निज-कर्म की ही जाय खो ||३०||
अपने उपार्जित कर्म-फल, को जीव पाते हैं सभी,
उसके सिवा कोई किसी को, कुछ नहीं देता कभी |
ऐसा समझना चाहिये, एकाग्र-मन होकर सदा,
‘दाता अवर है भोग का’, इस बुद्धि को खोकर सदा ||३१||
सबसे अलग परमात्मा है, ‘अमितगति’ से वन्द्य है,
हे जीवगण! वह सर्वदा, सब भाँति ही अनवद्य है |
मन से उसी परमात्मा को, ध्यान में जो लाएगा,
वह श्रेष्ठ-लक्ष्मी के निकेतन, मुक्ति-पद को पाएगा ||३२||
(दोहा)
पढ़कर इन द्वात्रिंश-पद्य को, लखता जो परमात्मवंद्य को |
वह अनन्यमन हो जाता है, मोक्ष-निकेतन को पाता है ||
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