चतुर्थकालीन सांगानेर वाले
बाबा ऋभदेव पूजन
रचियता – लालचन्द जी जैन (राकेश)
ऋषभदेव हैं धर्म – प्रवर्तक कर्म प्रवर्तक तीर्थंकर,
कर्मनाश कर सिद्ध भये हैं, भक्त धन्य हैं दर्शनकर;
साँगानेर वाले बाबा की प्रतिमा अतिशयकारी है,
पाप नशाती संकट हरती, दर्शन की बलिहारी है,
भक्ति भाव से पूजन करते, दीपक ज्योति जलाते हैं,
रोते रोते आते हैं जन, हँसते हँसते जाते हैं;
प्रभु के दर्शन करने से अब, मम स्वरूप का ज्ञान हुआ,
निधत्ति निकाचित कर्म कटे हैं, सम्यक् दर्शन प्राप्त हुआ,
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर – अवतर संवौषट् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव – भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
अष्टक
भाव कर्म मल द्रव्य कर्म मल नोकर्मों से दूषित हूँ ।
धारा जल की चरण चढाकर कर्म कलंक मिटाता हूँ ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
संसार के भाव विभावों में जलता मरता मैं आया हूँ ।
चन्दन प्रभु के चरण चढ़ाकर शान्त तपन कर पाया हूँ ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशयकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध प्रभु पद अक्षयपद है उस पद को अब पाना है ।
अक्षत प्रभु यह तुम्हें समर्पित, ऋषभदेव गुण गाना है ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अक्ष्यपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
विषय – वासना के विषधर से भव भव गया डसाया हूँ ।
हे विषहर ! तुम निर्विष कर दो पुष्प चढ़ाने आया हूँ ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख प्यास से दुखी रहा मैं भक्ष अभक्ष न पहिचाना।
नैवेद्य समर्पित करता हूँ मैं जैन धर्म अब पहिचाना।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अज्ञान अंधेरे में भटका हूँ तत्त्वज्ञान नहि कर पाया।
अज्ञान हटे अब ज्ञान जगे यह दीप जलाकर मैं लाया ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथ – जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
आठ कर्म मल ग्रहण किये हैं इसे नशाने आया हूँ ।
ऋषभदेव की भक्ति करके धूप अनल में खेता हूँ ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म कर्म सब किये अनेकों संसार दुखों का लक्ष्य रहा ।
धर्म करूँ फल मोक्ष मिले मम अतः श्रीफल चढा रहा ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरु यह दीप धूप फल लाया हूँ ।
पद अनर्घ मिल जाय मुझे, यह अर्घ समर्पित करता हूँ ।।
साँगानेर है क्षेत्र सातिशय, अतिशयकारी महिमा है ।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक अर्घ
आषाढ़ कृष्णा दूज तिथि को गर्भ विषै प्रभु जी आये ।
पन्द्रह माह तक रत्न वृष्टि कर, देवों ने मंगल गाये ।।
माता मरुदेवी को निशि में, सोलह शुभ सपने आये ।
गर्भकल्याणक मनाने सुरगण, नाभिराय के घर आये ।।
ॐ ह्रीं आषाढकृष्णद्वितीयां गर्भकल्याणक प्राप्ताय
श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत्र वदी नवमी के शुभ दिन, ऋषभदेव ने जन्म लिया ।
नरकों में भी शान्ति हुई थी, स्वर्णमयी साकेत हुआ ।।
शचि संघ ले इन्द्र अयोध्या, ऐरावत गज पर आया ।
ऋषभदेव बालक को लेकर, मेरु पर अभिषेक कराया ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां जन्मकल्याणक प्राप्ताय
श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत वदी की नवमी तिथि को ऋषभदेव वैराग्य हुआ ।
लौकान्तिक देवों ने आकर, उत्सव तप- कल्याण किया ।।
विषय भोग तज विरक्त हुए प्रभु, गृह कुटुम्ब सब त्याग दिया।
केशलोंच कर मौन लिया तब, भेष दिगम्बर धार लिया ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां तपः कल्याणक प्राप्ताय
श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
ऋषभदेव अरिहन्त हुए हैं, फाल्गुन कृष्णा ग्यारस को ।
चार घातिया कर्म हने हैं, अनन्त चतुष्टय पाने को ।।
स्वर्गपुरी के इन्द्रादिक ने समवसरण की रचना की ।
ध्वनि खिरी तब समवसरण में ऋषभदेव भगवान की ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णौकादश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय
श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह दिन जब शेष आयु के, योगनाश को गमन किया।
कैलासगिरी पर ध्यान लगाकर, आठ कर्म का नाश किया ।।
माघ कृष्ण की चौदस तिथि को, मोक्षपुरी को गमन किया।
इन्द्रादिक देवों ने आकर, सिद्धक्षेत्र को नमन किया ।।
ॐ ह्रीं माघृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्ध्वं निर्वपामीति स्वाहा ।
साँगानेर वाले बाबा का महाअर्घ
वैशाख शुक्ल की तीज तिथि को सुरगण साँगावति आये ।
विक्रम संवत सात शतक में, गजरथ पर जब प्रभु आये ।।
आदिब्रह्मा ऋषभदेव की, महिमा अतिशयकारी है।
भूगर्भ जिनालय रत्नमयी है, महिमा उसकी न्यारी है ।।
पूज्य सुधासागर गुरुवर ने, तेरी महिमा बता दई ।
सारे जग के भव्य जनों ने, तेरी शक्ति जान लई ।।
धन्य हुआ मैं पूजा करके, पूज्य परम पद पाना है ।
कर्म काटकर सिद्ध बनूं मैं, मोक्षपुरी को जाना है ।।
आधि व्याधि सब संकट मेरे पूजन से नश जाते हैं।
भव्य भक्त अब अर्घ सजाकर, तेरे चरण चढाते हैं ।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशयकारी साँगानेर वाले बाबा श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
ऋषभदेव भगवान हैं, अनुपम गुण की खान ।
साँगानेर में आन विराजे, अतिशय बड़ा महान ।।
नमस्कार हो मन – वच – तन से, ऋषभदेव भगवान प्रभु ।
बना हुआ हूँ भक्त तुम्हारा, तुमसा मैं बन जाऊँ प्रभु ।।
साँगानेर वाले बाबा को, हृदय कमल पर पधराऊँ ।
जिनशासन जयवंत प्रभु की, जयमाला अब मैं गाऊँ ।।१।।
सर्वार्थ – सिद्धि से प्रभु आये थे, नगर अयोध्या जन्म लिया ।
तीन लोक में शांति भई थी जन्म महोत्सव यहाँ हुआ ।।
नाभिराय हैं पिता तुम्हारे, अंतिम कुलकर कहलाये ।
मरुदेवी हैं मात तुम्हारी, आदिनाथ तुम कहलाये ।।२।।
स्वर्णमयी थी काया प्रभु की स्वर्णमयी साकेत हुआ।
जन्मकल्याणक हुआ आपका, मेरु पर अभिषेक हुआ।।
लाख तेरासी पूर्वकाल तक, कर्म प्रवर्तक कहलाये ।
राजा बनकर राज्य किया था, माण्डलीक प्रभु कहलाये ।।३।।
नन्दा सुनन्दा पनि छोड़ी, पुत्र शतक को त्याग दिया।
ब्राह्मी सुन्दरी पुत्री त्यागी, अक्षर, अंक का ज्ञान दिया ।।
भेष दिगम्बर धारण करके, प्रथम श्रमण तुम कहलाये ।
एक हजार बरस तप करके, तीर्थ प्रवर्तक कहलाये ।।४।।
कैलाशगिरी से मोक्ष पधारे, सिद्ध प्रभु पद प्राप्त किया।
साँगानेर आन विराजे, अतिशय अद्भुत यहाँ किया ।।
तेरह मील दूर जयपुर से, साँगानेर सुहाता है ।
चतुर्थ काल की प्रतिमा है यह, अतिशय क्षेत्र कहाता है ।।५।।
प्राचीन नाम संग्रामपुरम् था, ग्रन्थों ने गाथा गाई ।
सात शतक यहाँ जैनी घर थे, धर्म दिगम्बर अनुयाई ।।
धन वैभव सम्पन्न सभी थे, प्रतिदिन पूजा करते थे ।
साँगानेर के इस वैभव से, पास के राजा जलते थे ।।६।।
ईर्ष्याभाव भड़क उठा जब, धावा इस पर बोल दिया।
धन वैभव सब लूट-मारकर, साँगानेर वीरान किया।
बाबा तेरे मंदिर को भी, तहस नहस करने आये ।
काँप गये देवों के आसन, यक्ष देव झट से आये ।।७।।
सारी सेना कीलित करके, तेरा अतिशय दिखा दिया।
क्षमा चायना की राजा ने, चरण कमल में नमन किया ।।
सारी सेना मुक्त हुई तब बाबा का जयकार किया।
क्षमा याचना की राजा ने, चरण कमल में नमन किया ।।
सारी सेना मुक्त हुई तब बाबा का जयकार किया।
संवत् सोलह सौ मंगल था साँगानेर आबाद हुआ ।।८।।
साँगा नून ने ऋषभदेव को इष्ट देव स्वीकार किया ।
उद्धार करूँगा इस नगरी का, साँगा ने संकल्प किया ।।
साँगा नृप चाँदी का श्रीफल कार्यक्रमों पर भिजवाता ।
बाबा का आशीष प्राप्त कर कार्य शुरु तब करवाता ।।९।।
संग्रामपुरी का नाम बदल साँगा ने साँगावती किया।
साँगावती भी नाम सुधारा, साँगानेर अब नाम दिया ।।
सदी आठवीं का मंदिर यह अद्भुत और निराला है।
कलापूर्ण बाहर भीतर है, सात मँजिलों वाला है ।।१०।।
संवत् सात शतक की घटना, दिव्य महा गजरथ आया ।
आदिनाथ की प्रतिमा को वह, बिना सारथी के लाया ।।
नगर द्वार पर रुका नहीं रथ, यहाँ रुका सहसा आकर ।
संघीजी रथ से प्रतीमा को मंदिर में लाये जाकर ।।११।।
अदृश्य हुआ देवों का गजरथ, नभ से वाणी गूंज गई।
भगवानदास संघी श्रावक ने, वाणी उर में धार लई ।।
बहुत बड़ी थी यहाँ बावड़ी, जिस पर जीर्ण-शीर्ण मंदिर ।
कहलाता था तल्लेवाला, तलघर थे वापी अन्दर ।।१२।।
वापी को बंद किया संघी ने, तल पर मंदिर बनवाते ।
संवत् आठ शतक पन्द्रह में, संघी प्रतिष्ठा करवाते ।।
सन् उन्निस सौ तैंतिस में आचार्य शांतिसागर आये ।
आया स्वप्न एक दिन गुरु को गुफा रहस्य तब लख पाये ।।१३।।
भूरे रंग का सर्प वहाँ है, यक्ष सुरक्षित बतलाये ।
तीजे तल तक गुरु जी पहुँचे, प्रथम जिनालय ले आये ।।
सन उन्निस सौ चौरानव में, पूज्य सुधासागर आये ।
महातपस्वी, महाध्यानी हैं, जैनधर्म ध्वज फहराये ।।१४।।
बालयति है भावलिंगी हैं, मुनि पुंगव गुरु कहलाते ।
साँगानेर वाले बाबा को अपने उर में पधराते ।।
गम्भीर धैर्य थे क्षुल्लक संघ में, मन ही मन में हर्षाये ।
सन् उन्नीस सौ निन्यानवें में पुनः सुधासागर आये ।।१५।।
तीजी मंजिल से आगे तक, कोई अब तक नहि गया।
लेकिन सुधासागर के तप से यक्ष द्वार सब खोल गया ।।
चौथी तल में जाकर गुरुजी, दूजा चैत्यालय लाये ।
प्रतिमायें बत्तीस रत्न की, प्रथम बार गुरुजी लाये ।।१६।।
दशों लाख की जनता थी जब गुरुराज प्रतिमा लाये ।
रत्नमयी प्रतिमायें लखकर, जन जन के मन हर्षाये ।।
शेष अभी हैं अनगिन प्रतिमा, सुधासिन्धु ने बतलाई ।
भूरे रंग का नागराज है, रास्ता उसने दिखलाई ।।१७।।
संघी मंदिर के उद्धारक, सुधासिन्धु कहलाते हैं ।
वास्तुशास्त्र के ज्ञाता हैं मुनि, वास्तुदोष हटाते हैं।।
कायाकल्प हुई मंदिर की, भक्तों के मन भाती है।
चौबीसी ऊपर मंजिल में, सबके मन हर्षाती है ।।१८।।
इन्द्र शिरोधर मानस्तम्भ है, चर्तुमुखी पतिमा बैठी ।
दिग० चैत्यालय बने हुए हैं, फेरी में प्रतिमा बैठी ।।
मध्य विराजे पार्श्वनाथ त्र्य, संकटमोचन – हारी हैं ।
सौम्य मूर्ति है फनावली है, चिन्तामणी कहलाती है।।१९।।
साँगानेर के आदिनाथ के, और अनेकों अतिशय हैं।
कमलासन पर पद्मासन से, ऋषभदेव जी बैठे हैं ।।
तीन छत्र ऊपर सोने की, शोभा अद्भुत न्यारी है।
वीतराग मुद्रा है तेरी, सुर नर सबको प्यारी हैं ।।२०।।
तेरी पूजा जो कोई करता, विपदा सब टल जाती हैं।
भूत – पलीतों की बाधायें, पूजन से भग जातीं हैं ।।
श्रद्धा से जो छत्र चढाते, सुख सम्पत्ति सब पाते हैं ।
जय जयकार करें बाबा की, पूजा का फल पाते हैं ।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री १००८ महाअतिशयकारी साँगानेर वाले बाबा
आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
शरण आपकी आया हूँ मैं प्रभु मेरा उद्धार करो।
मेरी इस खाली झोली में, करुणा का भण्डार भरो ।।
ध्यान धनेश्वर महामुनीश्वर तुमको बारम्बार नमन ।
आदि जिनेश्वर है परमेश्वर हो जावे सब और चमन ।।
इत्याशीर्वाद
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