मार्दव धर्म आत्मा अर्थात् निजात्मा स्व-स्वरूप का धर्म है। जहाँ मृदु भाव या नम्रता नहीं है वहाँ धर्म भी नहीं है।
विनम्र वो नही जो बड़ों को सम्मान दे अपितु वह है जो छोटों का भी मान रखे
अपनी प्रशंसा सुनकर सब सुखी होते हैं, धर्मी तो वह है जो दूसरे की प्रशंसा सुनकर सुखी हो।
दूसरा कोई अपमानित करे या ना करे, पर जब व्यक्ति में अहं होता है, तो वह उसे स्वयं ही अपमानित महसूस कराने लगता है।
जो जितना अहंकारी होता है, वो उतना ही मान चाहता है। जितना मान चाहता है, प्रसंग ना मिलने पर अपने को उतना ही अपमानित महसूस करता है। वो अन्दर से अशांति उत्पन्न करता है, चित्त में उद्वेग उत्पन्न करता है। कभी किसी को नीचा दिखाने का भाव ना करें।
अहं क्या है? अपने आपको सच्चा और अपने आपको अच्छा मानने की वृत्ति। अपने ही विषय में सोचने की वृत्ति । अपने ही आपको प्रदर्शित करने की वृत्ति।
झुकोगे तो मजबूत बनोगे, अकङोगे तो टूट जाओगे।
मान ही हमारे जीवन का शत्रु और सबसे बड़ा मोह है
उत्तम अर्थात् सच्चा कि जिसमें दिखावट या बनावट न हो, ऐसा उत्तम मार्दव धर्म आत्माहीका निजस्वभाव है। यह गुण आत्मासे, मान कषायके क्षय, उपशम वा क्षयोपशम होनेसे प्रगट होता है-अर्थात् जबतक किसी जीवको मानकषायका दय रहता है, तबतक वह प्राणी अपने आपको सर्वोच्च मानता और दूसरेको तुच्छ गिनता हुआ,
जय जिनेंद्र🙏💐