ज्ञानोदय छन्द
सुमतिनाथ जिन सुमति प्रदाता, बोधि समाधि प्रदान करो।
मेरे उर के सिंहासन पर, हे जिनवर पग आन धरो ॥
मातु मंगला नगर विनीता, संजयन्त स्वर तज आये।
पिता मेघ प्रभु के प्रांगण में, सुरपति बाजे बजवाये ॥
पंचम तीर्थंकर प्रभु मेरी, विनती को अब स्वीकारो ।
बिन विलम्ब के हृदय पधारो, मेरा भव दुख निरवारो ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
अष्टपदी छन्द
क्षीरोदधि सम शुचि नीर, उर घट में लाये।
प्रभु हरो जन्म की पीर, पूजन को आये ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज चन्दन ले हाथ, दुख हरने आये ।
दो मोक्ष महल तक साथ, पथ समता भाये ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत तन्दुल भर थार, जिन पद में धारूँ ।
अक्षय सुख लक्ष्य निहार, भव दुख निरवारूं ॥
हे सुमतिनाथ! भगवान, सुमति प्रदान करो।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कर काम मदन को नाश, प्रभु तुम ब्रह्म बसे ।
मन सुमन चढ़ाऊँ खास, मेरा मदन नशे ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो ।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
चरु से नहिं क्षुधा नशाय, अनशन से नाशे ।
प्रभुवर से मिला उपाय, ज्ञानामृत प्राशे ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक से पूज रचाय केवलज्ञान जगे ।
प्रभु ज्ञान सूर्य सुखदाय, मम अज्ञान भगे ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो ।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
कर्मों की धूप बनाय, ध्यान अगनि जारूँ ।
प्रभु तुम सम बल को पाय, भव दुख निरवारूँ ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो ।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुख दुख में समता धार, पाऊँ मोक्ष मही ।
जिनवर पूजा फल सार, धारूँ सुतप यहीं ॥
हे सुमतिनाथ ! भगवान, सुमति प्रदान करो।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु विध कर्मों का नाश, पूजन लक्ष्य रहा ।
पाऊँ अनन्त गुण राश, वसु विध अर्घ लहा ॥
हे सुमतिनाथ! भगवान, सुमति प्रदान करो।
नहिं भटकाये अज्ञान, सम्यग्ज्ञान भरो ॥
ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याण अर्घ
दोहा
वैजयन्त सुर थान से, सुमति गर्भ में आय।
श्रावण शुक्ला दोज तिथि, नगर अयोध्या भाय ॥
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लाद्वितीयायां गर्भकल्याणमण्डित श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ ।
चैत्र सिता एकादशी, जन्म महोत्सव आय।
पिता मेघप्रभ आँगणा, सुरपति नृत्य रचाय॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
सित नवमी वैशाख थी, सहस्त्र नृप के साथ ।
सहेतु वन दीक्षा धरी, दो अनशन सह नाथ ॥
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लनवम्यां तपःकल्याणमण्डित श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
बीस वर्ष तप कर हुआ, केवलज्ञान महान ।
चैत्र शुक्ल एकादशी, घाति कर्म कर हान ॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
चैत्र शुक्ल एकादशी, सहस्र नृप सह मोक्ष
सिद्ध क्षेत्र सम्मेद गिरि, प्रणमूँ सुमति परोक्ष ॥
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षकल्याणमण्डितश्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।
जयमाला (यशोगान)
नव लख कोटि उदधि गये, अभिनन्दन विधि हीन ।
आयु पूर्व चालीस लख, उतुंग धनु शत तीन ॥
विद्याब्धि छन्द
लय-हे दीनबन्धु……………………………।
हे सुमतिनाथ ! मेरी मति को सुमति करो ।
अज्ञान मोह युक्त बुद्धि कुमति को हरो ॥
स्वर्णाभ देह आपको सुजन्म से मिला।
सुन्दर शरीर आदि अतिशायी गुण खिला ॥1॥
इक दिन सजी अयोध्या देख भव विरत हुए।
स्वर्गीय भोग संस्मरण में अवतरित हुए ॥
भोगों से तृप्ति ना हुई सुर भोग भोग के ।
नर भव के भोग दुख भरे हैं गेह रोग के ॥2॥
ऐसा विचार करते कि देवर्षि आ गये।
प्रभु के विराग भाव को अनुमोद के गये ॥
प्रभु बैठ अभय पालकी में वन को चल दिये।
सिद्धों को नमन कर स्व केशलोंच कर लिये ॥3॥
द्वादश तपों को धार सुमति मौन हो गये ।
नृप पद्म ने सुभक्ति से आहार दे दिये ॥
सु बीस वर्ष काल तप में पूर्ण ज्यों हुआ।
कैवल्य बोध आतमा में त्यों उदित हुआ ॥4॥
अमरादि सोल अधिक सौ गणीश संघ में ।
सब तीन लाख बीस सहस श्रमण को नमें ॥
आर्या अनन्तमति प्रमुख तिसहस लाख त्रय ।
कल्याणकारी संघ करे आत्म पर विजय ॥5॥
प्रभु ने अठारा देश में उपदेश को दिया।
मासायु शेष योग रोध शिखर शिव लिया ॥
प्रभु साथ में सहस्त्र साधु मोक्ष को गये।
हम सब दुखों से छूटने शरण में आ गये ॥6॥
ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चकवा पद में शोभता, सुमतिनाथ पहचान ।
सुमतिनाथ तुम सुमति दो, हरो सकल अज्ञान ॥
विद्यासागर सूरि कृत, मूकमाटी महाकाव्य ।
उनकी शिष्या मृदुमति, लिखती पूजा श्राव्य ॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
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