भगवान महावीर स्वामी
भगवान महावीर (Bhagwan Mahaveer Swami) जैन धर्म के चौंबीसवें (24वें) तीर्थंकर थे। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले (ईसा से 540 वर्ष पूर्व), वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम में अयोध्या इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय परिवार हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया।
72 वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिम्बिसार, कुणिक और चेटक भी शामिल थे। जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर-जयंती तथा उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूम धाम से मनाया जाता है।
महावीर स्वामी का गृहत्याग
अपने माता पिता की मृत्यु के बाद महावीर स्वामी के मन में वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, तब उन्होंने अपने बङे भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा माँगी, लेकिन उनके भाई ने उनको 2 वर्ष रुकने के लिए कहा, इसलिए वे उनकी आज्ञा का मान रखते हुए 2 वर्ष रुके रहे। फिर महावीर स्वामी ने अपने भाई नंदीवर्धन से आज्ञा लेकर 30 वर्ष की आयु में वन में जाकर केशलोच के साथ उन्होंने गृहत्याग कर दिया।
गृहत्याग के बाद उन्होंने ’खंडवन’ नामक स्थान पर ’अशोक वृक्ष’ के नीचे अपने सारे राजस्वी वस्त्र त्याग दिये और संन्यासी के वस़्त्र धारण किये। जैन ग्रन्थ ’आचरांग सूत्र’ के अनुसार महावीर स्वामी सबसे पहले कुम्भहार गाँव में पहुँचे और वहीं पर तप शुरू किया। उन्होंने प्रारम्भिक 13 महीने तो वस्त्र धारण किये, उसके बाद ’स्वर्णवालूका नदी’ के किनारे वस्त्र त्याग दिये और नग्न अवस्था में रहने लगे। इन्हें दिगंबर कहा गया है जिसका अर्थ है – दिशाएँ ही जिसका वस्त्र हो।
महावीर स्वामी का जीवन परिचय |
जन्म – 540 ई. पू., चैत्र शुक्ल त्रयोदशी |
जन्मस्थान – वैशाली के निकट कुण्डग्राम |
मृत्यु – 468 ई. पू. (72 वर्ष), कार्तिक अमावस्या |
मोक्ष स्थान – पावापुरी (बिहार) |
बचपन का नाम – वर्धमान |
अन्य नाम – वीर, अतिवीर, सन्मति, निकंठनाथपुत्त (भगवान बुद्ध), विदेह, वैशालियें |
जाति – ज्ञातृक क्षत्रिय |
वंश – इक्ष्वाकु वंश |
राशि – कश्यप |
पिता – सिद्धार्थ |
माता – त्रिशला/विदेहदत्ता |
भाई – नंदीवर्धन |
बहन – सुदर्शना |
पत्नी – यशोदा (कुण्डिय गोत्र की कन्या) |
पुत्री – अणोज्जा/प्रियदर्शना |
दामाद – जामालि (प्रथम शिष्य – प्रथम विद्रोही) |
गृहत्याग – 30 वर्ष की आयु में |
ज्ञान प्राप्ति की अवस्था – 42 वर्ष (12 वर्ष बाद) |
ज्ञान प्राप्ति – जृम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे साल के वृक्ष के नीचे |
ज्ञान प्राप्ति के बाद इनके नाम – जिन, अर्हत, महावीर, निर्गन्थ, केवलिन। |
प्रथम उपदेश – राजगृह के समीप विपुलांचल पर्वत में बराकर नदी के किनारे |
प्रथम वर्षावास – अस्तिका ग्राम में |
अन्तिम वर्षावास – पावापुरी |
प्रतीक चिह्न – सिंह |
महावीर स्वामी के 11 गणधरों के नाम
- इंद्रभूति गौतम
- अग्निभूमि गौतम
- वायुभूमि गौतम
- मंडिकपुत्र वशिष्ठ मौर्य
- व्यक्त भारद्वाज कोल्लक
- सुधर्मण अग्निवेश्यायन कोल्लक
- भौमपुत्र कासव मौर्य
- अकंपित गौतम
- अचलभ्राता हिभाण
- मेतार्य कौंडिन्य तुंगिक
- प्रभास कौंडिन्
भगवान महावीर के उपदेश
महावीर स्वामी (Mahaveer Swami) ने इन पंचशील सिद्धातों को अपनाने वालों को सच्चा जैन अनुयायी कहा है।
1. अहिंसा – अपने मन, वचन तथा कर्म से हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैन धर्म को मानने वाले सभी अनुयायियों के लिए अहिंसा को मानना अनिवार्य था। महावीर स्वामी का सबसे बङा सिद्धांत अहिंसा का है। इनके समस्त दर्शन, चरित्र तथा आचार-विचार सभी अहिंसा के सिद्धांत हैं। इन्होंने बताया कि – ’’अहिंसा ही परम धर्म है।’’ अहिंसा ही परम ब्रह्म है, अहिंसा ही सुख-शांति देने वाली है। यह मनुष्य का सच्चा कर्म है।
2. सत्य – महावीर स्वामी ने बताया कि मनुष्य को हमेशा सत्य वचन बोलना चाहिए। उनका कहना था कि सत्य वचन बोलने वाले व्यक्ति को ही मोक्ष तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है, जो जीवन का सबसे बङा लक्ष्य है।
3. अस्तेय – भगवान महावीर ने बताया है कि व्यक्ति को कभी भी चोरी नहीं करनी चाहिए। चोरी करना एक पाप तथा अपराध है और कोई भी मनुष्य पापी तथा अपराधी बनकर मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता है।
4. अपरिग्रह – महावीर स्वामी ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि यदि कोई व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति चाहता है, वह सदा के लिए ईश्वर में मिल जाना चाहता है, तो उसे अपने धन का संचय नहीं करना चाहिए, क्योंकि जब तक हमारे पास धन रहता हैं, हमारी लालच तथा इच्छाओं का लोप नहीं होता हैं तथा लालची व्यक्ति को कभी भी मुक्ति नहीं मिलती है। उनका कहना था कि जितना धन हम स्वयं के लिए खर्च करते हैं, उससे हमारी इच्छाएं और प्रबल होती है, इसलिए धन का संचय न करें। सम्पत्ति से मोह व आसक्ति उत्पन्न होती है।
5. ब्रह्मचर्य – जैन भिक्षुओं को अपने जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना पङता था। अपनी इन्द्रियों को वश में करना। ब्रह्मचर्य के अंतर्गत किसी नारी से वार्तालाप, उसे देखना, उससे संसर्ग का ध्यान करने की भी मनाही थी। इन पाँच व्रतों में ऊपर के चार पार्श्वनाथ ने दिये थे, जबकि पाँचवाँ व्रत ब्रह्मचर्य महावीर स्वामी ने जोङा।
इस प्रकार भगवान महावीर ने अपने ये सारे उपदेश दिए, जो जैन धर्म को मानने वाले सभी साधु, श्रविक, श्राविका, अनुयायी आदि सभी के लिए मानना तथा उसका पालन करना अनिवार्य था।
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